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अ०४/प्र०२
जैनेतर साहित्य में दिगम्बरजैन मुनियों की चर्चा / ३३५ सोचा-'इन दोनों से उत्पन्न पुत्र मेधावी होगा।' उन्होंने दोनों का विवाह कराकर, उन्हें एक जगह बसाया। दोनों के सहवास से क्रमशः चार लड़कियाँ और एक लड़का पैदा हुआ। लड़कियों का सच्चा, लोला, अववादका (अवधारिका) और पटाचारा (पाटिच्छादा) नाम रखा गया तथा लड़के का सच्चक। उन पाँचों ने बड़े होने पर माता से पाँच सौ वाद और पिता से पाँच सौ वाद, इस प्रकार एक हजार वाद सीख लिये। माता-पिता ने लड़कियों को यह नसीहत दी कि यदि कोई गृहस्थ तुम्हें शास्त्रार्थ में हरा दे, तो उसकी चरण-दासियाँ बन जाना और यदि कोई प्रव्रजित हरा दे तो उसके पास प्रव्रजित हो जाना। समय बीतने पर माता-पिता चल बसे।
उनके मरने पर सच्चक निर्ग्रन्थ वहीं वैशाली में लिच्छवियों को शिल्प (विद्या) सिखाता हुआ रहने लगा। बहनों ने जम्बु-शाखा ले, शास्त्रार्थ के लिए नगर-नगर घूमना आरम्भ किया। श्रावस्ती पहुँच उन्होंने नगर-द्वार पर शाखा गाड़ दी और बालकों से कहा कि जो हमसे शास्त्रार्थ कर सके, वह गृहस्थ हो या प्रव्रजित, इस बालू की ढेरी को पाँव से बिखेर कर इस जम्बु-शाखा को पाँव से ही कुचल दे। यह कहकर वे भिक्षार्थ नगर में गईं।
आयुष्मान् सारिपुत्र बिना बुहारी जगह को बुहार कर खाली घड़ों में पानी भर, और रोगियों की सेवा कर दिन चढ़ने पर भिक्षार्थ निकले। उन्होंने वह शाखा देखी, और लड़कों से पूछा। लड़कों के बतलाने पर उन्होंने उसे लड़कों से ही गिरवाकर कुचलवा दिया और उनसे कहा कि जिन्होंने यह शाखा गाड़ी हो, वे भोजन समाप्त कर जेतवन की ड्योढ़ी पर आकर मुझसे मिलें। भिक्षा से लौट कर भोजनान्तर वे विहार की ड्योढ़ी पर ही रहे। उन परिव्राजिकाओं ने भी भिक्षा से लौट, उस शाखा को मर्दित देखकर पूछा
"इसे किसने कुचला?"
"सारिपुत्र स्थविर ने। यदि तुम शास्त्रार्थ करना चाहो, तो विहार की ड्योढ़ी पर जाओ।"
बच्चों से यह सुन, वे फिर नगर में गईं और जनता को इकट्ठा कर विहार की ड्योढ़ी पर पहुँची। वहाँ उन्होंने स्थविर से एक हजार प्रश्न पूछे। स्थविर ने उत्तर देकर पूछा
"और भी कुछ जानती हो?" "स्वामी! नहीं जानतीं।" "मैं कुछ पूछू ?"
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