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अ०४/प्र०२
जैनेतर साहित्य में दिगम्बरजैन मुनियों की चर्चा / ३३३ किसी निर्ग्रन्थ श्रमण का न तो अपना कोई घर होता है, न कोई बागबगीचा, न इतना धनधान्य और नौकर-चाकर आदि परिग्रह कि एक बहुत बड़े भिक्षुसंघ को भोजन करा सके। यह सब एक गृहस्थ के ही हो सकता है। कोई श्रमण किसी को अपने हाथ से भोजन भी नहीं परोसता। अतः यह दूसरा प्रमाण है कि सच्चक श्रमण नहीं था, एक सामान्य गृहस्थ था।
४. निर्ग्रन्थश्रमण तो क्या, वह निर्ग्रन्थश्रावक का पुत्र होते हुए भी स्वयं निर्ग्रन्थों का अनुयायी नहीं था, क्योंकि वह गौतम बुद्ध से स्वयं कहता है कि मैंने मक्खलि गोसाल, अजित केसकम्बल, प्रक्रुध कात्यायान, सञ्जय वेलट्ठपुत्त के अलावा निगण्ठनाटपुत्त से भी शास्त्रार्थ (वाद) किया था
___ "अभिजानामहं, भो गोतम, मक्खलिं गोसालं --- पे०--- अजितं केसकम्बलं --- पकुधं कच्चायनं--- सञ्जयं बेलट्ठपुत्तं ---निगण्ठं नाटपुत्तं वादेन वादं समारभिता। सो पि मया वादेन वादं समारद्धो अजेननं पटिचरि, बहिद्धा कथं अपनामेसि, कोपं च दोसं च अप्पच्चयं च पात्वाकासि।"(महासच्चकसुत्त / मज्झिमनिकायपालि / १. मूलपण्णासक । पृ. ३४५ / बौद्धभारती, वाराणसी)।
जो भगवान् महावीर से भी शास्त्रार्थ कर सकता है, वह उनका शिष्य भी नहीं हो सकता, तब उनके निर्ग्रन्थसम्प्रदाय का श्रमण होने की तो बात ही दूर। बाबू कामताप्रसाद जी ने भी भगवान् महावीर और महात्मा बुद्ध नामक ग्रन्थ में कहा है कि "सच्चक एक जैनी का पुत्र होते हुए भी जैन नहीं है।" (पृ.२०१)। उन्होंने यह भी लिखा है कि "सच्चक का यह कथन तथ्य नहीं रखता कि उसने महावीर स्वामी को वाद (शास्त्रार्थ) में परास्त किया था, क्योंकि वह स्वयं महात्मा बुद्ध से 'वाद' में पराजित हुआ है।" (पृ. २०१)।
उपर्युक्त प्रमाणों से सिद्ध होता है कि निगण्ठपुत्त सच्चक निर्ग्रन्थों के अनुयायी श्रावक का पुत्र था, और निर्ग्रन्थश्रावक का पुत्र होते हुए भी स्वयं निग्रंथ श्रावक नहीं था, अपितु एक अनिर्ग्रन्थ गृहस्थ था। उसकी विशेषता सिर्फ यह थी कि वह वादपण्डित अर्थात् शास्त्रार्थप्रवीण था।९१ अतः मुनि कल्याणविजय जी की यह मान्यता भ्रान्तिपूर्ण है कि सच्चक श्रमण था।
चूँकि सच्चक निर्ग्रन्थ श्रमण नहीं था, और न किसी निर्ग्रन्थ श्रमण का पुत्र हो सकता था, फिर भी उसे निर्ग्रन्थपुत्र कहा गया है, इससे स्पष्ट है कि वह निर्ग्रन्थों ९१. "तेन खो पन समयेन सच्चको निगण्ठपुत्तो वेसालियं पटिवसति भस्सप्पवादको पण्डितवादो
साधुसम्मतो बहुजनस्स।" चूळसच्चकसुत्त/मज्झिमनिकायपालि/१. मूलपण्णासक/ पृ. ३१३.५ बौद्धभारती, वाराणसी।
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