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________________ अ०४/प्र०२ जैनेतर साहित्य में दिगम्बरजैन मुनियों की चर्चा / ३३१ 'निर्ग्रन्थसम्प्रदाय' के नाम से ही प्रसिद्ध था। आजीविक सम्प्रदाय के साधु और श्रावक भी 'आजीविक' नाम से ही जाने जाते थे। अशोक के दिल्ली (टोपरा) स्तम्भाभिलेख में ब्राह्मणों, आजीविकों एवं निर्ग्रन्थों का उल्लेख हुआ है।८ वहाँ 'आजीविक' (या 'आजीवक') और 'निर्ग्रन्थ शब्दों से केवल नग्न साधु अर्थ अपेक्षित नहीं है, अपितु सम्प्रदाय-विशेष के नग्नसाधुओं से अभिप्राय है। अतः ये नाम उस समय सम्प्रदायविशेष के भी वाचक थे। इसलिए बौद्ध पिटकसाहित्य में निर्ग्रन्थसम्प्रदाय के श्रमण और श्रावक दोनों के लिए 'निगण्ठ' संज्ञा का प्रयोग हुआ है। ___मुनि श्री कल्याणविजय जी ने निर्ग्रन्थपुत्र सच्चक को 'निर्ग्रन्थ जैन श्रमण सच्चक' कहा है (अ.भ.म./ पृ.३२३), यह भ्रान्तिपूर्ण है। सम्पूर्ण बौद्धसाहित्य में निर्ग्रन्थश्रमण को कहीं भी 'निर्ग्रन्थपुत्र' शब्द से सम्बोधित नहीं किया गया। भगवान् महावीर को भी 'निगण्ठपुत्त' नहीं कहा गया, अपितु 'निगण्ठनातपुत्त' कहा गया है, जिसका अर्थ है नाथपुत्र (नाथवंशीय) या ज्ञातृपुत्र (ज्ञातृवंशीय) निर्ग्रन्थ श्रमण। इस पर प्रकाश डालते हुए पं० कैलाशचन्द्र जी शास्त्री लिखते हैं___ "दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों इस बात से सहमत हैं कि महावीर कुण्डपुर या कुण्डग्राम के राजा सिद्धार्थ के पुत्र थे। और सिद्धार्थ दिगम्बरीय उल्लेखों के अनुसार णाह-वंश८९ या नाथवंश के क्षत्रिय थे और श्वेताम्बरीय उल्लेखों के अनुसार णायकुल के थे। इसी से महावीर को णायकुलचन्द्र और णायपुत्त कहा है। "णाह, णाय, णात ये सब शब्द एक ही अर्थ के वाचक हैं। इसी से 'बुद्धचर्या' में भी राहुल जी ने नाटपुत्त का अर्थ ज्ञातृपुत्र और नाथपुत्र दोनों किया है। अतः दिगम्बरों के अनुसार महावीर नाथपुत्र थे, तो श्वेताम्बरों के अनुसार ज्ञातृपुत्र थे। अतः बौद्धग्रन्थों में निर्दिष्ट णातपुत्त अवश्य ही जैनतीर्थङ्कर महावीर हैं। उस समय जाति और देश के आधार पर इस तरह के नामों के व्यवहार करने का चलन था। जैसे बुद्ध को शाक्यपुत्र कहा है, क्योंकि वे शाक्यवंश के थे और उनका जन्म शाक्य देश (कपिलवस्तु) में हुआ था। इसी से उनके अनुयायी श्रमण शाक्यपुत्रीय-श्रमण कहे जाते थे (बुद्धचर्या/ पि मे कटे इमे वियापटा होहंतीति । निगंठेस पि मे कटे इमे वियापटा ___होहंति।" जैनशिलालेखसंग्रह / माणिकचन्द्र / भा.२ / लेख क्र.१। ८९. क-कुण्डपुरपुरवरिस्सर सिद्धत्थक्खत्तियस्स णाहकुले। . तिसिलाए देवीए देवीसदसेवमाणाए ॥ २३ ॥ जयधवला/क.पा./भा.१/ पृ.७८ । ख–णाहोग्गवंसेसु वि वीर-पासा ॥ ४/५५७॥ तिलोयपण्णत्ती। ग- उग्रनाथौ पार्श्ववीरौ। (दशभक्ति / पृ. २४८)। ९०. "णातपुत्ते महावीरे एवमाहजिणुत्तमे।" सूत्रकृतांग १/१/१। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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