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________________ ३३० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ०४/प्र०२ निर्ग्रन्थसम्प्रदाय का श्रावक था, क्योंकि उसके साथ जुड़े निर्ग्रन्थपुत्र विशेषण में 'पुत्र' शब्द का प्रयोग हुआ है। इस प्रमाण से भी सिद्ध होता है कि प्राचीन बौद्धसाहित्य में निर्ग्रन्थों को 'अचेलक' शब्द से भी अभिहित किया गया है। इस प्रमाण से मुनि कल्याणविजय जी का यह निष्कर्ष मिथ्या सिद्ध हो जाता है कि महावीर के साधु वस्त्रपात्र अवश्य रखते थे। निर्ग्रन्थसम्प्रदाय के श्रावक की भी 'निर्ग्रन्थ' संज्ञा दीघनिकाय (भा.३ / पासादिकसुत्त) के "निगण्ठस्स नाटपुत्तस्स सावका गिही ओदात-वसना" (महावीर के श्वेतवस्त्रधारी गृहस्थ श्रावक) इस कथन के आधार पर बाबू कामता प्रसाद जी ने 'निगण्ठा एकसाटका'८७ का अर्थ एक श्वेतवस्त्रधारी निर्ग्रन्थ श्रावक किया है। इस पर मुनि कल्याणविजय जी ने दो आपत्तियाँ की हैं। पहली तो यह कि 'निगण्ठा' शब्द निर्ग्रन्थसाधु का वाचक है, न कि निर्ग्रन्थश्रावक का। दूसरी यह कि 'अवदात' (ओदात) का अर्थ श्वेत नहीं, उज्ज्वल अथवा स्वच्छ होता है। _ 'निगण्ठ' शब्द के अर्थ के विषय में वे लिखते हैं कि "बौद्ध त्रिपिटकों में 'निग्गन्थ' शब्द केवल निर्ग्रन्थ साधुओं के लिए प्रयुक्त हुआ है, श्रावकों के लिए नहीं। जहाँ कहीं भी जैन श्रावकों का प्रसंग आया है, वहाँ सर्वत्र 'निगंठस्स नाथपुत्तस्स सावका' (निर्ग्रन्थ ज्ञातपुत्र के श्रावक) अथवा निगंठसावक (निर्ग्रन्थों के श्रावक) इस प्रकार 'श्रावक' शब्द का ही उल्लेख हुआ है, न कि 'निग्गंथ' शब्द का। इसलिए 'निग्गंठ' शब्द का 'श्रावक' अर्थ लगाना कोरी हठधर्मी है।" (श्र.भ.म/प्र.३२२)। मुनि जी का यह कथन समीचीन नहीं है। बौद्ध त्रिपिटकों में 'निगण्ठ' शब्द का प्रयोग निर्ग्रन्थसम्प्रदाय के साधु और श्रावक अथवा निर्ग्रन्थ श्रमण और उनके अनुयायी श्रावक दोनों के लिए हुआ है। सुत्तपिटकगत मज्झिमनिकाय (प्रथमभाग) के 'चूळसच्चकसुत्त' एवं 'महासच्चकसुत्त' में सच्चंक को 'निगण्ठपुत्त' (निर्ग्रन्थपुत्र) कहा गया है। निगण्ठपुत्त का अर्थ निर्ग्रन्थमुनि का पुत्र नहीं हो सकता, क्योंकि मुनि सन्तान उत्पन्न नहीं करते। अतः उसका अर्थ है निर्ग्रन्थों के अनुयायी श्रावक का पुत्र। जैसे वर्तमान में दिगम्बरजैन-सम्प्रदाय के श्रावक भी दिगम्बरजैन कहलाते हैं, वैसे ही प्राचीनकाल में निर्ग्रन्थसम्प्रदाय के श्रावक भी निर्ग्रन्थ कहलाते थे, क्योंकि उस समय 'जैनसम्प्रदाय' ८७. देखिए , इसी प्रकरण का शीर्षक क्र.८, छळभिजातिसुत्त / अंगुत्तरनिकायपालि (६,७,८ निपात / भा.३ / पृ.९३-९४) का उद्धृत अंश। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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