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[छियालीस]
जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ त्रुटियों का अन्वेषण भी उन्होंने ही किया है। पुस्तकालय और अध्ययनकक्ष को व्यवस्थित करना उनका ही दैनिक कार्य है। इस तरह ग्रन्थलेखन में उन्होंने मेरा बहुत हाथ बँटाया है। अग्रजतुल्य प्रो० राजाराम जी ने प्रसिद्ध नैयायिक वाचस्पति मिश्र की पत्नी भामती से उनकी तुलना की है, इसे मैं स्वीकार करता हूँ। जिनशासन के अवर्णवाद के प्रतिकार में सहभागिनी बनकर मेरी धर्मपत्नी ने जो धर्म अर्जित किया है, उससे वह स्त्रीपर्याय से छुटकारा पा लेंगी, ऐसा मेरा विश्वास है।
मेरे बड़े पुत्र-पुत्रवधू चिरंजीव अनिमेष और सौ० संगीता तथा छोटे पुत्र-पुत्रवधू चि० अनुपम एवं सौ० अर्चना ग्रन्थ के शीघ्र समापन और प्रकाशन के लिए बहुत उत्सुक थे। इस हेतु उन्होंने मेरे अध्ययन और लेखन को अधिकाधिक निर्बाध एवं सुविधामय बनाने के लिए हर सम्भव प्रयत्न किया है। उन्होंने मेरे लिए आधुनिक सुविधाओं से सम्पन्न एक अध्ययनकक्ष बनवाया, जिसमें बैठकर मैं व्यवस्थितरूप से अध्ययन-लेखन कर सका हूँ, जिससे मेरे समय और श्रम की काफी बचत हुई है, स्वास्थ्य भी अनुकूल बना रहा। लेखनसामग्री भी वे समय से पहले ही उपस्थित करते रहे हैं। बड़े पुत्र चि० अनिमेष ने दिल्ली से अनेक आवश्यक ग्रन्थ खरीदकर भेजने का भी काम किया है। इस तरह पुत्रों और पुत्र वधुओं ने भी जिनशासन के अवर्णवाद के प्रतीकार में हाथ बँटाकर पुण्य अर्जित किया है, जो निश्चय ही उनके अभ्युदय और निःश्रेयस् का हेतु बनेगा। उनके लिए मेरे हृदय में अगणित आशीर्वाद फलफूल रहे हैं।
श्री पार्श्वनाथ विद्यापीठ वाराणसी में रहकर मैंने कई दिनों तक ग्रन्थों का अध्ययन किया है। वहाँ के अधिकारियों और कर्मचारियों ने मेरे साथ अत्यन्त सौहार्दपूर्ण व्यवहार किया, मुझे आवास और आहार की अनुकूल व्यवस्था उपलब्ध करायी। वहाँ के व्याख्याता डॉ० श्रीप्रकाश जी पाण्डेय एवं पुस्तकालय प्रभारी श्री विजयकुमार जी, श्री ओमप्रकाश जी एवं श्री राकेश जी ने भी बड़े आदरपूर्वक मुझे ग्रन्थ उपलब्ध कराये तथा आवश्यक अंशों की छायाप्रतिलिपि करके दी। इस, सौजन्य के लिए मैं उक्त विद्यापीठ एवं इन सब बन्धुओं के प्रति आभार प्रकट करता हूँ।
भोपालवासी श्री अशोककुमार जी जैन वनक्षेत्रपाल तथा मेरे सम्बन्धी श्री पद्मचन्द्रजी जैन ने भी लिपि संशोधन में मेरी सहायता की है। श्री विकास गोधा ने ग्रन्थ के आवरणपृष्ठगत शिल्प एवं ग्रन्थमुद्रण-सम्बन्धी अनेक उपयोगी सुझाव दिये हैं। मैं इन सब सज्जनों का कृतज्ञ हूँ। मेरे मित्र इंजीनियर श्री धरमचन्द्र जी वाझल्य समयसमय पर एक्युप्रेशरचिकित्सा द्वारा मुझे नीरोग बनाते हुए ग्रन्थलेखन में मेरा सहयोग करते रहे हैं। मैं उनके प्रति भी आभार व्यक्त करता हूँ।
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