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ग्रन्थकथा
[ पैंतालीस] एक इतिहास हस्तगत हुई। उसे पढ़ते समय मेरी दृष्टि इस बात पर गई कि उन्होंने भी भगवती-आराधना के यापनीयग्रन्थ होने की मान्यता को गलत बतलाया है। इससे मेरे मत की पुष्टि होती है, अतः मैंने डॉ० वसन्तराज जी के वचन भी उक्त प्रकरण में उद्धृत किये हैं। मैं उनका भी आभारी हूँ।
श्री माइल्ल धवल ने जिनागम को जानने के लिए प्रमाण और नयों को नेत्रयुगल की उपमा दी है। मेरे विचार से प्राकृत और संस्कृत भी जिनागम के अधिगम के लिए नेत्रयुगल हैं। मैं धन्य हूँ कि मेरे पूज्य पिता पं० बालचन्द्र जी जैन प्रतिष्ठाचार्य एवं पूजनीया माता अमोलप्रभा जी जैन ने मुझे ये दोनों नेत्र उपलब्ध कराये हैं। इस हेतु उन्होंने मुझे घर में ही प्राथमिक शिक्षा देकर सीधे पूज्य गणेशप्रसाद जी वर्णी द्वारा स्थापित दिगम्बर जैन संस्कृत महाविद्यालय सागर (म.प्र.) में प्रवेश दिलाया, जहाँ मुझे अत्यन्त श्रेष्ठ गुरुओं से प्राकृत, संस्कृत और जैनधर्म की शिक्षा प्राप्त हुई, और ऐसा जीवनदर्शन मिला, जिसने मेरी प्रवृत्ति को साहित्य-मन्थन कर सत्य के अन्वेषण की ओर उन्मुख कर दिया। इन संस्कृत-प्राकृतरूपी नेत्रों ने ही मुझे परमपूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी जैसे महान् सन्त के द्वारा प्रस्तुत ग्रन्थ-लेखन का कार्य सौंपे जाने योग्य बनाया है, जिससे मैं बहुत सम्मानित हुआ हूँ। इस अहोभाग्य के योग्य बनाने में मेरे पूज्य पिता जी एवं पूजनीया माता जी की ही पुण्यप्रेरित दूरदृष्टि का हाथ है। अतः मैं उनके प्रति अपनी अपार कृतज्ञता और भक्ति निवेदित करता हूँ।
मेरी पूजनीया बड़ी बहनों-स्व० श्रीमती शान्ति जैन एवं स्व० श्रीमती कंचन जैन, पूज्य बड़े भाई पं० कोमलचन्द्र जी जैन एवं प्रिय अनुजद्वय श्री शीलचन्द्र तथा श्री शिखरचन्द्र ने भी मेरे उन्नतिपथ को प्रशस्त करने का विभिन्न प्रकार से यत्न किया है। प्रिय अनज शीलचन्द्र ने तो अन्य अनेक प्रकार से भी ग्रन्थलेखन में सहयो किया है। उन्होंने कतिपय ग्रन्थों से आवश्यक सन्दर्भ ढूँढ़कर प्रस्तुत किये, लिपिसंशोधन किया, 'अन्तस्तत्त्व' तैयार किया तथा शब्दसूची भी निर्मित की। इस तरह मेरे कार्यभार को काफी हलका कर दिया। एतदर्थ मैं अपने बड़ों को प्रणाम करता हूँ और छोटों को आशीर्वाद देता हूँ।
मेरी सरलहृदया, धैर्यधना, धर्मानुरागिणी, धर्मपत्नी श्रीमती चमेलीदेवी जैन ने इस ग्रन्थ के लेखन में महान् सहयोग किया है। मेरे परिश्रम को देखते हुए उन्होंने मुझे स्वस्थ रखने का अधिक से अधिक ध्यान रखा है। मेरी व्यस्तता का ख्याल कर आहार-जल, औषधि आदि को समय पर ग्रहण कराने का उत्तरदायित्व उन्होंने स्वयं सँभाला है। इसके अतिरिक्त मेरे साथ बैठकर विभिन्न ग्रन्थों से आवश्यक पाठ ढूँढ़कर मुझे बताने का कार्य भी वे करती रही हैं। सम्पूर्ण ग्रन्थ की बची-खुची लिपिगत
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