SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 50
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [चवालीस] जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ की अनुमति नहीं देते, चाहे वह राजनीतिक या सामाजिक दृष्टि से कितना ही प्रभावशाली क्यों न हो! एक घटना उदाहरणीय है। भोपाल में आचार्यश्री ने मुझे अपराह्न में दो से चार बजे तक का समय ग्रन्थवाचना के लिए दिया था। वाचना चल रही थी। उस समय एक केन्द्रीय मंत्रीमहोदया आचार्यश्री के दर्शनार्थ आयीं। मन्दिर-कमेटी के अध्यक्ष ने दो बार बीच में आकर मंत्रीमहोदया को भीतर ले आने की अनुमति मांगी। किन्तु आचार्यश्री ने दोनों बार मना कर दिया। जब मेरा समय पूरा हुआ, तभी उन्हें बुलाने की अनुमति दी। इस तरह आचार्यश्री ने मेरे ग्रन्थ को बड़ी निष्ठा और एकाग्रता से सुना। इसे मैं अपना अहोभाग्य, अपने पूर्वकृत पुण्यों के उदय का प्रकर्ष मानता हूँ कि इस ग्रन्थलेखन के निमित्त से मुझ जैसे नगण्य श्रावक को वर्तमान युग के परममहिमावान् , परमवीतरागी, दिगम्बरमुनि, परमपूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी का इतना नैकट्य प्राप्त हुआ, उनके चरणों में कई दिनों तक कई-कई घंटे बैठने और चर्चा करने का दुर्लभ अवसर सुलभ हुआ, उनका प्रगाढ़ वात्सल्य, और आशीर्वाद प्राप्त करने की दीर्घ काललब्धि मेरे जीवन में आयी। यह मेरी वर्तमान मानवपर्याय की दुर्लभतम उपलब्धि है। इस हेतु मैं परमपूज्य आचार्य विद्यासागर जी के प्रति प्रगाढ़ श्रद्धा एवं भक्ति से नतमस्तक हूँ। उनके प्रति मैं अपनी असीम निष्ठा एवं कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ। जैसा कि मैंने पूर्व में लिखा है, प्रत्येक वाचना में पूज्य मुनि श्री अभयसागर जी भी बैठते थे तथा कुण्डलपुर में पूज्य मुनि श्री प्रमाणसागर जी ने भी वाचना का श्रवण किया था। इन दोनों गुरुओं के परामर्शों ने भी ग्रन्थ को निर्दोष और गुणवन्त बनाने में महत्त्वपूर्ण योगदान किया है। इनके अतिरिक्त भोपाल में मुझे पूज्य मुनि श्री नमिसागर जी के सम्पर्क में आने का अवसर प्राप्त हुआ। युवा होते हुए भी उनका अध्ययन और चिन्तन-मनन देखकर मैं उनसे बहुत प्रभावित हुआ। उन्होंने मेरे ग्रन्थ के कतिपय अंशों को सुना, तो उन्हें एक-दो त्रुटियों का अनुभव हुआ। दो-तीन वर्षों बाद जब वे कर्नाटक में विहार कर रहे थे, तो वहाँ से उन्होंने सन्देश द्वारा उन त्रुटियों की ओर मेरा ध्यान आकृष्ट किया, और प्रमाण भिजवाये। प्रमाणों को देखकर मझे अपनी त्रटियों का बोध हआ और मैंने उनका तरन्त परिहार किया। इस प्रकार मुनि श्री नमिसागर जी की कृपा से भी मेरे ग्रन्थ की त्रुटियों का परिहार हुआ है। एतदर्थ इस मुनित्रयी के प्रति मैं अपनी भक्ति एवं आभार की अभिव्यक्ति करता हूँ। जब ग्रन्थ लिखा जा चुका था और लिपिसंशोधन चल रहा था, तब अचानक डॉ० एम० डी० वसन्तराज द्वारा लिखित पुस्तक गुरुपरम्परा से प्राप्त दिगम्बर जैन आगम : Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy