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________________ ग्रन्थकथा [तेंतालीस] हर्ष का पारावार न रहा। मैं लगभग ७०० पृष्ठ लेकर अक्टूबर २००० में चातुर्मास के समय सर्वोदयतीर्थ, अमरकंटक (म.प्र.) पहुँच गया। वहाँ आचार्यश्री ने षडावश्यकों के अतिरिक्त अन्य कार्य छोड़कर दिवसकाल में प्रतिदिन, चार-चार घण्टे, पन्द्रह दिन तक, वे ७०० पृष्ठ सुने और बहुत प्रसन्न हुए। अनेक जगह त्रुटियाँ भी बतलाईं और उनका शोधन कराया, कई स्थानों पर नयी युक्तियों और प्रमाणों का समावेश कराया। इस प्रकार उक्त सात सौ पृष्ठ आचार्यश्री द्वारा संशोधित एवं प्रमाणित कर दिये गये। तब मेरे उत्साह का ठिकाना न रहा। आत्मविश्वास में वृद्धि हुई और घर आकर आगे लिखने में जुट गया। फिर ई० सन् २००१ में कुण्डलपुर (दमोह, म.प्र.) के ऐतिहासिक पंचकल्यणक-गजरथ-महोत्सव में गया और वहाँ आचार्यश्री ने अत्यधिक व्यस्त रहते हुए भी सात दिन तक दो-दो घंटे नये अध्यायों की वाचना सुनी। तत्पश्चात् सन् २००१ में ही दयोदयतीर्थ, तिलवाराघाट (जबलपुर, म.प्र.) के चातुर्मास में एक सप्ताह तक दो-दो घंटे, तथा मार्च २००२ में, दो दिन विदिशा (म.प्र.) में, पश्चात् भोपाल (म.प्र.) में सात दिन तक, चार-चार घंटे एकाग्रता से ग्रन्थ के उत्तर अध्यायों का श्रवण किया। उसके बाद जुलाई २००२ में सिद्धोदय तीर्थ, नेमावर (म.प्र.) में भी कुछ पृष्ठ मैंने आचार्यश्री को सुनाये। कुछ उत्तर अध्यायों का श्रवण पूज्य आचार्यश्री ने अप्रैल २००३ में पुनः कुण्डलपुर में किया। शेष अध्यायों की वाचना नवम्बर २००३ में अमरकंटक में, जनवरी २००४ में बिलासपुर (छत्तीसगढ़) में तथा मार्च २००४ में दि० जैन अतिशय क्षेत्र, रामटेक (नागपुर, महाराष्ट्र) में सम्पन्न हुई। इन सभी वाचनाओं में आचार्यश्री ने अनेक त्रुटियों का परिमार्जन कराया और नये तर्क एवं प्रमाणों से ग्रन्थ को सुसज्जित कराकर उसे सर्वथा निर्दोष और पूर्णतः युक्तिमत् एवं प्रामाणिक बना दिया। इसे जैनपरम्परा और यापनीयसंघ नाम भी उन्हीं के द्वारा प्रदान किया गया है, जो ग्रन्थ के विषय को भली भाँति द्योतित करता है। कई-कई दिन तक घंटों बैठकर एकाग्रतापूर्वक ग्रन्थ को सुनने से जो शारीरिक और मानसिक श्रान्ति होती थी, उसकी आचार्यश्री ने कोई परवाह नहीं की। अन्य दर्शनार्थियों को समय न दे पाने से वे क्या सोचते होंगे, इस पर भी उन्होंने कोई ध्यान नहीं दिया। स्वयं के स्वाध्याय और संघ के अध्यापन को भी कुछ समय के लिए निरस्त या विलम्बित कर देने का असन्तोष उनके मन में नहीं व्यापा, क्योंकि उनके अन्तस् में भी यह लगन थी कि दिगम्बर-परम्परा के इतिहास और साहित्य के विषय में भ्रान्ति उत्पन्न करने का जो कुप्रयास किया गया है, उसका निराकरण शीघ्र हो। इस प्रसंग में आचार्यश्री के एक अन्य विशिष्ट गुण पर मेरा ध्यान गया। वह यह कि जिस समय, जिस व्यक्ति को वे चर्चा के लिए समय दे देते हैं, उसका वे दृढ़ता से पालन करते हैं। उस समय वे किसी अन्य व्यक्ति को उसमें विक्षेप Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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