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________________ [ बयालीस ] जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ मुझ तक पहुँचाने की महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इस हेतु इन दोनों हितैषियों के प्रति आभार प्रकट करता हूँ । प० पू० आचार्य श्री विद्यासागर जी की प्रेरणा से संस्थापित प्रतिभामण्डल की मुंबई - वासिनी, ब्रह्मचारिणी बहन तेजल ने मेरे आग्रह पर एक श्वेताम्बरकथा गुजराती से हिन्दी में अनुवादित कर उपलब्ध करायी, जो अत्यन्त आवश्यक थी । मैं उनका भी हृदय से आभारी हूँ । ग्रन्थलेखन के पश्चात् आवश्यक था इसका गुण-दोषावलोकन । मेरा कोई प्रतिपादन दिगम्बरजैन- सिद्धान्त के विरुद्ध तो नहीं है, इस पर किसी सुविज्ञ का दृष्टिपात अत्यन्त आवश्यक था। वर्तमान में ऐसे सर्वमान्य सुविज्ञ एक ही हैं - गुरुवर आचार्य श्री विद्यासागर जी। वे एक ऐसे गुरु के शिष्य हैं, जिन्होंने पं० भूरामल (शान्तिकुमार) शास्त्री के रूप में स्याद्वाद महाविद्यालय, वाराणसी में जैनसिद्धान्त एवं संस्कृत - प्राकृत-अपभ्रंश का गहन अध्ययन किया था और अपनी जन्मजात अद्भुत काव्यप्रतिभा से संस्कृत में जयोदय जैसे महाकाव्य की रचना कर संस्कृत महाकाव्यों की प्रसिद्ध बृहत्त्रयी (किरातार्जुनीय, शिशुपालवध और नैषधीयचरित) को बृहच्चतुष्टयी संज्ञा से विभूषित करने का कीर्तिमान स्थापित किया है तथा जिनकी कृतियों पर तीन दर्जन से भी अधिक शोधकर्ता पी-एच० डी०, डी० लिट्० तथा विद्यावारिधि आदि की उपाधियाँ प्राप्त कर चुके हैं। ऐसे यशस्वी दिगम्बरजैनाचार्य परमपूज्य ज्ञानसागर जी महाराज से आचार्य श्री विद्यासागर जी ने चारों अनुयोगों एवं संस्कृत, प्राकृत तथा अपभ्रंश की विधिवत् शिक्षा प्राप्त कर स्वकीय चिन्तन-मनन द्वारा जिनागम की गहराइयों में चिर अवगाहन किया है। उन्होंने भी संस्कृत और हिन्दी में कई शतकों एवं मूकमाटी जैसे उत्कृष्ट महाकाव्य की सृष्टि की है। उनकी कृतियाँ भी तीन दर्जन से अधिक शोधकर्त्ताओं को पी-एच० डी० एवं डी० लिट्० इत्यादि उपाधियों से विभूषित कराने का साधन बन चुकी हैं। आचार्यश्री का अध्ययन पाण्डित्यप्रधान नहीं, अपितु गवेषणात्मक है। एक शोधार्थी की सूक्ष्मदृष्टि से वे स्वाध्याय करते हैं और आगम के अनावृत, अनुन्मीलित तथ्यों को प्रकाशित करते हैं। उनकी प्रवचनशैली इस तथ्य का अनुभव कराती है। आचार्य श्री विद्यासागर जी ने वर्तमान युग में मुनिपद को जो अनिर्वचनीय पूज्यता, श्रद्धास्पदता और प्रामाणिकता प्रदान की है, उसकी चर्चा एक अद्भुत कथा की तरह भारतीय इतिहास में युगों तक होती रहेगी । बाल, युवा, वृद्ध सभी को उनके अभूतपूर्व व्यक्तित्व ने सम्मोहित किया है। ऐसे सुविज्ञ, सर्वप्रिय और सर्वपूज्य गुरुवर से ही मैंने प्रस्तुत ग्रन्थ के गुणदोषावलोकन की प्रार्थना की और गुरुवर ने भी वात्सल्यभावपूर्वक स्वीकृति प्रदान कर दी। मेरे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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