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________________ अ०४/प्र०२ जैनेतर साहित्य में दिगम्बरजैन मुनियों की चर्चा / ३२५ अतः सिद्ध है कि उपर्युक्त वाक्य में निर्ग्रन्थों को ही 'अचेलक' शब्द से अभिहित किया गया है। दूसरा प्रमाण यह है कि 'अंगुत्तरनिकाय' के उपर्युक्त वाक्य में श्वेतवस्त्रधारी गृहस्थ अचेलकों के श्रावक कहे गये हैं और 'दीघनिकाय' के निम्नलिखित वाक्य में वे निगण्ठनाटपुत्त (भगवान् महावीर) के श्रावक बतलाये गये हैं "निगण्ठस्स नाटपुत्तस्स सावका गिही ओदातवसना।" (पासादिकसुत्त / दीघनिकायपालि / भा. ३/ पृ. ६८३)। इससे बिलकुल स्पष्ट है कि प्राचीन बौद्धसाहित्य में 'निर्ग्रन्थों' का कथन 'अचेलक' शब्द से भी हुआ है। तीसरा प्रमाण यह है कि मज्झिमनिकाय (प्रथम भाग) में निर्ग्रन्थपुत्र सच्चक एवं दीघनिकाय (प्रथम भाग) में अचेल काश्यप का प्रसंग है। 'निर्ग्रन्थपुत्र' विशेषण से ज्ञात होता है कि सच्चक निर्ग्रन्थसम्प्रदाय के श्रावक का पुत्र था तथा 'अचेल' विशेषण सूचित करता है कि काश्यप नग्न साधु थे। ये दोनों गौतम बुद्ध के समक्ष अचेलक आजीवक साधुओं के अशोभनीय आचार का वर्णन करते हैं। यदि अचेल काश्यप स्वयं आजीवक साधु होते तो, ऐसा न करते। इससे सिद्ध है कि वे निर्ग्रन्थसम्प्रदाय के साधु थे। इसके अतिरिक्त निर्ग्रन्थपुत्र सच्चक और अचेल काश्यप दोनों आजीविकों के अशोभनीय आचार का वर्णन करते हैं, इससे भी दोनों का समान (निर्ग्रन्थ) सम्प्रदाय से सम्बद्ध होना सूचित होता है। यह इस बात का प्रमाण है कि प्राचीन बौद्ध साहित्य में निर्ग्रन्थ साधुओं को भी 'अचेलक' विशेषण दिया गया है। निर्ग्रन्थपुत्र सच्चक और अचेल काश्यप आजीवकों के जिस अशोभनीय आचार का वर्णन करते हैं, उसे निर्ग्रन्थपुत्र सच्चक तो स्पष्ट शब्दों में आजीवकों का आचार कहता है, अचेल काश्यप स्पष्ट शब्दों में नहीं कहते, पर वह सच्चक द्वारा वर्णित आचार से अक्षरशः साम्य रखता है, इससे सिद्ध है कि वह आजीवकों का ही आचार है। दोनों के द्वारा वर्णित आचार नीचे उद्धृत किया जा रहा है। निर्ग्रन्थपुत्र सच्चक द्वारा वर्णित आजीविकों का आचार निर्ग्रन्थ सच्चक का गौतम बुद्ध के साथ इस प्रकार वार्तालाप होता है "एकमन्तं निसिन्नो खो सच्चको निगण्ठपुत्तो भगवन्तं एतदवोच-सन्ति भो गोतम! एके समणब्राह्मणा कायभावनानुयोगमनुयुत्ता विहरन्ति, नो चित्तभावनं---।" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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