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________________ ३२४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ०४/प्र०२ ये ही नियम पालन किये जाते थे, यह मान लेना भूल होगी।" (अ.भ.म./ पृ.२६७-२६८)। ___ यही भूल जैकोबी ने प्राचीन निर्ग्रन्थों को 'एकवस्त्र रखनेवाला' मानने में की है, तथा किसी अंग्रेज विद्वान् ने ओदातवसना का अर्थ 'श्वेतवस्त्रवाला' किया है, इससे असहमत होने के कारण मुनि कल्याणविजय जी ने टिप्पणी की है कि "अंग्रेज कोई केवली नहीं हैं, जो उनके कहने से अवदात (ओदात) का अर्थ श्वेत ही मान लिया जाय और अन्यवर्ण न माना जाय।"(श्र.भ.म/पृ.३२३)। मुनि जी की यह टिप्पणी मैं जैकोबी के विषय में भी दुहराना चाहता हूँ कि जर्मन विद्वान् कोई केवली नहीं हैं, जो उनके कहने से 'एकसाटक' पद को 'निर्ग्रन्थ' का विशेषण मान लिया जाय। वस्तुतः वह एक स्वतंत्र सम्प्रदाय का नाम था। ९ निर्ग्रन्थों के लिए भी 'अचेलक' शब्द का प्रयोग "उदानपालि' के पूर्वोक्त उद्धरण में निर्ग्रन्थों और अचेलकों का अलग-अलग निर्देश है, इससे यह नहीं समझ लेना चाहिए कि अचेलक (आजीविक) सम्प्रदाय के ही मुनि नग्न रहते थे, निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय के नहीं। दोनों सम्प्रदायों के मुनि नग्न रहते थे, किन्तु 'निर्ग्रन्थ' शब्द दिगम्बर जैन साधुओं के लिए रूढ़ हो चुका था। अतः उनसे भिन्नता का बोध कराने के लिए आजीवक (आजीविक) सम्प्रदाय के साधु 'अचेलक' शब्द से अभिहित किये जाने लगे। 'उदानपालि' के पूर्वोक्त उद्धरण में 'अचेलक' शब्द आजीवकों के लिए ही प्रयुक्त हुआ है। बौद्धों में निर्ग्रन्थों का नग्न रहना तो 'निर्ग्रन्थ' (ग्रन्थरहित = वस्त्रादिपरिग्रहरहित) शब्द से ही प्रसिद्ध था। ___ तथापि बौद्धसाहित्य में निर्ग्रन्थों के लिए भी 'अचेलक' शब्द का प्रयोग हुआ है, इसके अनेक प्रमाण हैं। अंगुत्तरनिकाय (भा.३) के छळभिजातिसुत्त में पूरण कस्सप ने अचेलक साधुओं के श्वेतवस्त्रधारी श्रावकों को हरिद्राभिजातीय बतलाया है "पूरणेन कस्सपेन हलिहाभिजाति पञत्ता, गिही ओदातवसना अचेलकसावका।"७९ __ ये अचेलक साधु आजीवक (आजीविक) सम्प्रदाय के नहीं थे, क्योंकि आजीवकों को पूरण कस्सप ने शुक्ल और परमशुक्ल अभिजातियों में परिगणित किया है। ७९ ७८. ओदातवसन = श्वेतवस्त्रधारी / भदन्त आनन्द कौसल्यायन-कृत पालि-हिन्दी कोश / पृ. ८१ । ७९. देखिये, अंगुत्तरनिकायपालि भा.३ का पूर्वोद्धृत अंश (अध्याय ४/प्र.२ / शी.८)। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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