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अ०४/प्र०२
जैनेतर साहित्य में दिगम्बरजैन मुनियों की चर्चा / ३२३ सम्प्रदाय के साधुओं का वाचक है। अतः मनि श्री कल्याणविजय जी ने 'निगण्ठा एकसाटका' इस उल्लेख से जो यह अर्थ निकाला है कि बुद्ध के समय में निग्रंथ साधु एक वस्त्र अवश्य रखते थे,अतः यह उल्लेख श्वेताम्बर-सम्प्रदाय की प्राचीनता का प्रमाण है, वह सर्वथा गलत है। उक्त उल्लेख में 'निर्ग्रन्थ' शब्द 'एकशाटक' विशेषण से रहित है, अतः सिद्ध है कि प्राचीन बौद्ध-साहित्य में 'निर्ग्रन्थ' साधु निर्ग्रन्थ रूप (नग्नरूप) में ही वर्णित हैं। इससे दिगम्बरजैन-सम्प्रदाय की प्राचीनता प्रमाणित होती है। फलस्वरूप मनि कल्याणविजय जी का यह दावा भी गलत सिद्ध हो जाता है कि प्राचीन बौद्ध साहित्य में नग्न जैन साधुओं का उल्लेख कहीं भी नहीं है। और जो दावा उन्होंने निम्नलिखित वक्तव्य में किया है, वह भी औंधे मुँह गिर जाता है। वे प्रो० जैकोबी के कथन को प्रामाणिक मानने का दावा करते हुए लिखते हैं
"बौद्धों की अर्वाचीन जातककथाओं में निर्ग्रन्थ श्रमणों को 'नग्न निर्ग्रन्थ' लिखा देखकर कोई कह दे कि 'प्राचीन निर्ग्रन्थ भी नग्न होते थे' तो ऐसे आंशिक ज्ञानवालों के कथन से प्राचीन श्रमणों की नग्नता साबित नहीं हो सकती। जिन्होंने बौद्धों के सबसे प्राचीन पालिग्रन्थों और प्राचीन जैनसूत्रों का तलस्पर्शी अध्ययन किया है, ऐसे विद्वानों की सम्मति ही इस विषय में अधिक विश्वसनीय हो सकती है। डॉक्टर हर्मन जैकोबी इसी प्रकार के विद्वान् हैं और इन्होंने जैनसूत्रों की प्रस्तावना में प्राचीन बौद्ध ग्रन्थों के उल्लेखों से यह बात अच्छी तरह सिद्ध कर दी है कि प्राचीन निर्ग्रन्थ श्रमण एक वस्त्र रखते थे। इसीलिए बौद्ध लोग इन्हें 'एकसाटक' कहा करते थे।"(श्र.भ.म./ पृ.३१८-३१९)।
___ यहाँ मुनि जी ने प्राचीन बौद्धसाहित्य में 'एकसाटक' (एकशाटक) शब्द के प्रयोग को निर्ग्रन्थ श्रमणों के एकवस्त्रधारी होने का प्रमाण इसलिए माना है कि प्राचीन बौद्धसाहित्य के तलस्पर्शी अध्येता डॉ० जैकोबी ने ऐसा कहा है। किन्तु जैकोबी के अध्ययन की तलस्पर्शिता पर उदानपालि का उपर्युक्त प्रमाण प्रश्नचिन्ह लगा देता है। उदानपालि के उपर्युक्त उद्धरण से सिद्ध है कि 'एकशाटक' निर्ग्रन्थों का विशेषण नहीं, अपितु एक स्वतंत्रसम्प्रदाय का नाम है, अतः उसे निर्ग्रन्थों का विशेषण मानकर प्राचीन निर्ग्रन्थों को एक वस्त्र रखनेवाला घोषित करना भ्रान्तिपूर्ण निष्कर्ष है। अतः मुनि जी का जैकोबी के निष्कर्ष को प्रामाणिक मानने का दावा भी धराशायी हो जाता है।
जैकोबी के सभी निष्कर्ष सही हों यह मुनि श्री कल्याणविजय जी भी नहीं मानते। वे लिखते हैं-"उत्तराध्ययनसूत्र के उपोद्घात में प्रो० जैकोबी ने आजीविक और निर्ग्रन्थों के आचारों की एकता बताई है, पर वास्तव में इन दोनों सम्प्रदायवालों के आचारों में बहुत बड़ा अन्तर था। यद्यपि मज्झिमनिकाय में आजीविकों के कठिनतम तप और भिक्षा के नियमों का वर्णन है, तथापि सब आजीविक भिक्षुओं द्वारा सदाकाल
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