________________
३२२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
अ०४ / प्र० २
ये एकवस्त्रधारी होते हैं, जब कि मुनि कल्याणविजय जी ने 'श्वेताम्बर साधु' अर्थ लिया है।
ये दोनों अर्थ युक्तिसंगत नहीं है । 'अंगुत्तरनिकाय' के कर्त्ता ने छहों अभिजातियों के उदाहरण में कहीं भी 'च' अव्यय का प्रयोग नहीं किया है, जबकि वे भिन्नभिन्न प्रकार के मनुष्यों के वाचक हैं। जैसे उन्होंने शुक्लाभिजाति में 'आजीवका आजीवकिनियो' उदाहरण दिये हैं । यहाँ 'च' अव्यय का प्रयोग नहीं है, फिर भी ये दोनों पद भिन्न-भिन्न व्यक्तियों के वाचक हैं। 'आजीवका' पद आजीवक (आजीविक- देखिये, पा. टि. ८८) सम्प्रदाय साधुओं या गृहस्थों का वाचक है तथा 'आजीवकिनियो ' पद इस सम्प्रदाय की साध्वियों या गृहस्थ स्त्रियों का । इसी प्रकार तण्हाभिजाति के 'लुद्दा मच्छघातका चोरा चोरघातका बन्धनागारिका' इन उदाहरणों में भी 'च' अव्यय प्रयुक्त नहीं है, तथापि ये भिन्न-भिन्न प्रकार के क्रूरकर्मा मनुष्यों के सूचक हैं। 'नन्दो वच्छो, किसो सङ्किङ्घच्चो, मक्खलिगोसालो' ये परमशुक्लाभिजाति के मनुष्यों के उदाहरण हैं। ये भी 'च' अव्यय के बिना ही अलग-अलग व्यक्तियों का अर्थ प्रकट करते हैं । 'निगण्ठा एकसाटका' इसी प्रकार का प्रयोग है। यहाँ भी 'च' अव्यय का प्रयोग नहीं है, फिर भी दोनों पद स्वतंत्र हैं और भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों के साधुओं का बोध कराते हैं । 'निगण्ठ' पद दिगम्बरजैन सम्प्रदाय के साधुओं का बोध कराता है और 'एकसाटक' (एकशाटक) पद एकशाटकसम्प्रदाय के साधुओं का। इस सम्प्रदाय के साधु केवल एकवस्त्र धारण करते थे, इसलिए उनका सम्प्रदाय 'एकशाटक' नाम से प्रसिद्धि को प्राप्त हुआ था । उदानपालि सुत्तपिटक के खुद्दकनिकाय का प्राचीन ग्रन्थ है । उसके निम्नलिखित कथन से यह बात एकदम स्पष्ट हो जाती है
" तेन खो पन समयेन सत्त च जटिला, सत्त च निगण्ठा, सत्त च अचेलका, सत्त च एकसाटका, सत्त च परिब्बाजका परूळ्हकच्छनखलोमा खारिविविधमादाय भगवतो अविदूरे अतिक्कमन्ति।" (सत्तजटिलसुत्त/ जच्चन्धवग्गो / उदानपालि / पृ. १४३) ।
अनुवाद - " ( जब गौतम बुद्ध शाम के समय ध्यान में लीन बैठे हुए थे) उस समय सात जटिल ( जटाधारी साधु), सात निर्ग्रन्थ (निर्ग्रन्थसम्प्रदाय के साधु), सात अचेलक (अचेलक=आजीवक - सम्प्रदाय के साधु ), सात एकशाटक (एकवस्त्रधारी - सम्प्रदाय के साधु) और सात परिव्राजक ( परिव्राजक - सम्प्रदाय के साधु), जिनकी काँख, नख और लोम बढ़े हुए थे तथा जो विविध उपकरण लिए हुए थे, आकर भगवान् बुद्ध के पास बैठ गये।"
इस कथन में एकशाटक साधुओं को निर्ग्रन्थों से पृथक् निर्दिष्ट किया गया है, इससे स्पष्ट है कि 'एकशाटक' 'निर्ग्रन्थ' का विशेषण नहीं, अपितु निर्ग्रन्थादि से भिन्न
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
wwww.jainelibrary.org