________________
अ० ४ / प्र० २
जैनेतर साहित्य में दिगम्बरजैन मुनियों की चर्चा / ३२१
" तत्रिदं भन्ते! पूरणेन कस्सपेन लोहिताभिजाति पञ्ञत्ता, निगण्ठा एकसाटका ।' संस्कृत छाया - तत्रेदं भन्ते ! पूरणेन काश्यपेन लोहिताभिजातिः प्रज्ञप्ता, निर्ग्रन्था एकशाटका: ।
हिन्दी अनुवाद - भन्ते ! उक्त छह अभिजातियों में पूरण काश्यप ने निर्ग्रन्थों और एकवस्त्रधारी साधुओं को लोहिताभिजाति का बतलाया है।
किन्तु मुनि जी ने उपर्युक्त मूलपाठ के स्थान में निम्नलिखित पाठ लिखा है"लोहिताभिजाति नाम निग्गंथा एकसाटकाति वदति । " और इसका यह अर्थ बतलाया है - " एक चीथड़ेवाले निर्ग्रन्थों को वह लोहिताभिजाति कहता है। "
यहाँ द्रष्टव्य है कि जो शब्द मुनि जी के द्वारा बौद्धसूत्र के शब्द बतलाये गये हैं, वे बौद्धसूत्र से अर्थात् अंगुत्तरनिकाय के उपर्युक्त मूलपाठ से शब्द और वाक्य दोनों दृष्टियों से बहुत भिन्न हैं। उदाहरणार्थ, मुनि जी ने अपने वाक्य में 'नाम' शब्द का प्रयोग किया है, किन्तु मूलपाठ में 'नाम' शब्द नहीं है। मुनि जी ने 'निग्गंथा' शब्द लिखा है, जबकि मूलपाठ में 'निगण्ठा' पद है और पालिभाषा में 'निग्गंथा' रूप बनता ही नहीं है। मुनि जी ने 'वदति' क्रिया का प्रयोग किया है, जबकि मूलपाठ में 'पञ्ञत्ता' क्रिया है और मूलपाठ में 'पूरणेन कस्सपेन पञ्ञत्ता' इस प्रकार वाक्यरचना कर्मवाच्य रूप है, जबकि मुनि जी ने 'वदति' क्रिया का प्रयोग कर वाक्य को कर्तृवाच्य में परिवर्तित कर दिया है। मुनि जी ने 'एकसाटका' के साथ 'ति' अव्यय प्रयुक्त किया है, जबकि मूलपाठ में उसका अभाव है। इससे लगता है मुनि जी ने मूलग्रन्थ देखने का कष्ट नहीं उठाया और किसी से सुनकर उपर्युक्त वाक्य लिख दिया है । अस्तु ।
यहाँ ध्यान देने योग्य मुख्य बात यह है। कि लोहिताभिजाति के उदाहरण में जो 'निगण्ठा एकसाटका' पद आये हैं उनमें 'एकसाटका' पद 'निगण्ठा' का विशेषण नहीं है, बल्कि दोनों स्वतंत्र पद हैं और भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों के साधुओं के वाचक हैं । 'निगण्ठा' पद तीर्थंकर महावीर के अनुयायी नग्न साधुओं का वाचक है और 'एकसाटका' पद 'एकसाटक' - सम्प्रदाय के साधुओं का, जो एक वस्त्र धारण करने के कारण इस नाम से प्रसिद्ध थे ।
किन्तु उक्त पदों के साथ 'निगण्ठा एकसाटका च' इस प्रकार भिन्नव्यक्तिसूचक च अव्यय का प्रयोग न होने से बाबू कामताप्रसाद जी एवं श्वेताम्बरमुनि श्री कल्याणविजय जी ने 'एकसाटका' पद को 'निगण्ठा' का विशेषण मानकर दोनों पदों को निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय के ही साधकों का वाचक मान लिया है। बाबू कामताप्रसाद जी ने उनसे 'निर्ग्रन्थसम्प्रदाय के क्षुल्लक नामक उत्कृष्ट श्रावक' अर्थ ग्रहण किया है, ७७ क्योंकि
७७. भगवान् महावीर और महात्मा बुद्ध / पृ. ६०-६१,२१० ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org