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३२० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
अ०४/प्र०२ यहाँ मेरा पहला निवेदन यह है कि मुनिजी ने अंगुत्तरनिकाय के उद्धरण को यथावत् प्रस्तुत नहीं किया, अपितु शब्दों में परिवर्तन करके प्रस्तुत किया है। दूसरी बात यह है कि छह अभिजातियों का सिद्धान्त आजीविक-मत के नेता गोशालक का नहीं, अपितु अक्रियवादी पूरण काश्यप का है। प्रमाणार्थ मैं उक्त सिद्धान्त को ज्यों का त्यों उद्धृत कर रहा हूँ
___ "एकमन्तं निसिन्नो खो आयस्मा आनन्दो भगवन्तं एतदोवाच-"पूरणेन, भन्ते! कस्सपेन छळभिजातियो पञत्ता-तण्हाभिजाति पञता, नीलाभिजाति पञता ,लोहिताभिजाति पञता, हलिद्दाभिजाति पञता, सुक्काभिजाति पञता, परमसुक्काभिजाति पञता।
"तत्रदिं भन्ते! पूरणेन कस्सपेन तण्हाभिजाति पञत्ता, ओरब्भिका सूकरिका साकुणिका मागविका लुद्दा मच्छघातका चोरा चोरघातका बन्धनागारिका ये वा पनजे पि केचि कुरूरकम्मन्ता।
"तत्रिदं भन्ते! पूरणेन कस्सपेन नीलाभिजाति पञत्ता, भिक्खू कण्टकवुत्तिका ये वा पनजे पि केचि कम्मवादा किरियावादा।'
"तत्रिदं भन्ते ! पूरणेन कस्सपेन लोहिताभिजाति पञत्ता, निगण्ठा एकसाटका।
"तत्रिदं भन्ते! पूरणेन कस्सपेन हलिहाभिजाति पत्ता, गिही ओदातवसना अचेलक-सावका।
"तत्रिदं भन्ते! पूरणेन कस्सपेन सुक्काभिजाति पञत्ता, आजीवका आजीवकिनियो।
"तत्रिदं भन्ते! पूरणेन कस्सपेन परमसुक्काभिजाति पञत्ता, नन्दो वच्छो किसो सङ्किच्चो मक्खलि गोसालो। पूरणेन, भन्ते! कस्सपेन इमा छळभिजातियो पञत्ता ति।" (छळभिजातिसुत्त/अंगुत्तरनिकायपालि ६,७,८ निपात/ भा.३/पृ.९३-९४)।
यहाँ प्रत्येक अनुच्छेद में पूरण कस्सप नाम दुहराया गया है। इस प्रकार सात बार इस नाम की आवृत्ति हुई है, फिर भी मुनि जी ने 'छह अभिजातियों' के सिद्धान्त को मक्खलि गोशालक द्वारा प्रणीत बतलाया है। दूसरी बात यह है कि पूरण कस्सप द्वारा प्रज्ञप्त पहली अभिजाति का नाम तण्हाभिजाति (तृष्णाभिजाति) है, किन्तु मुनिजी ने उसके स्थान में कृष्णाभिजाति नाम लिखा है। कृष्णाभिजाति तो गौतम बुद्ध द्वारा प्रज्ञप्त छह अभिजातियों में से है।७६ तीसरी बात यह है कि अंगुत्तरनिकाय का मूल पालिपाठ इस प्रकार है७६. “अहं खो पनानन्द छळभिजातियो पापेमि।---इध पनानन्द एकच्चो कण्हाभिजातियो---।"
(छळभिजातिसुत्त/अंगुत्तरनिकायपालि/६,७,८ निपात/भा.३/पृ. ९४)।
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