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अ०४ / प्र०२
जैनेतर साहित्य में दिगम्बरजैन मुनियों की चर्चा / ३१९ यहाँ नग्न रहना और कुश आदि के वस्त्र धारण करना अन्यतीर्थिक (बौद्धतर सम्प्रदायों के) साधुओं के लक्षण बतलाये गये हैं। उनमें नग्नता केवल निर्ग्रन्थों और आजीविकों का लक्षण थी। अतः स्पष्ट है कि बुद्ध ने आजीविकों और निर्ग्रन्थों की ही नग्नता के अनुकरण का निषेध किया है।
एकशाटक-सम्प्रदाय निर्ग्रन्थ-सम्प्रदाय से भिन्न
'उदानपालि' का प्रमाण श्वेताम्बर मुनि श्री कल्याणविजय जी ने श्वेताम्बर-सम्प्रदाय को प्राचीन सिद्ध करने के लिए बौद्धसाहित्य से एक भ्रान्तिमूलक प्रमाण प्रस्तुत किया है। वे लिखते हैं
"अब हम देखेंगे कि श्वेताम्बर-सम्प्रदाय की प्राचीनता को सिद्ध करने वाले कुछ प्रमाण भी उपलब्ध होते हैं या नहीं?
"बौद्धों के प्राचीन पालिग्रन्थों में आजीविकमत के नेता गोशालक के कुछ सिद्धान्तों का वर्णन मिलता है, जिसमें मनुष्यों की कृष्ण, नील, लोहित, हारिद्र, शुक्ल और परमशुक्ल ये छः अभिजातियाँ बताई गई हैं। इनमें से दूसरी नीलाभिजाति में बौद्धभिक्षुओं
और तीसरी लोहिताभिजाति में निग्रंथों का समावेश किया है। इस स्थल में निर्ग्रन्थों के लिए प्रयुक्त बौद्धसूत्र के शब्द इस प्रकार हैं-"लोहिताभिजाति नाम निग्गंथा एकसाटकाति वदति।" अर्थात् एक चीथड़ेवाले निर्ग्रन्थों को वह लोहिताभिजाति कहता है। (अंगुत्तरनिकाय/ भाग ३/पृ.३८३)।
"इस प्रकार गोशालक ने निर्ग्रन्थों के लिए जो यहाँ एक चीथड़ेवाले यह विशेषण प्रयुक्त किया है और इसी प्रकार दूसरे स्थलों में भी अतिप्राचीन बौद्ध लेखकों ने जैन निग्रंथों के लिए एकसाटक विशेषण लिखा है, इससे सिद्ध होता है कि बुद्ध के समय में भी महावीर के साधु एक वस्त्र अवश्य रखते थे, तभी अन्य दार्शनिकों ने उनको उक्त विशेषण दिया है।
"कट्टर साम्प्रदायिक दिगम्बर यह 'एक साटक' विशेषण उदासीन निर्ग्रन्थ श्रावकों के लिए प्रयुक्त होने की संभावना करते हैं, परन्तु उन्हें यह मालूम नहीं कि बौद्ध त्रिपिटकों में 'निग्गन्थ' शब्द केवल निर्ग्रन्थ साधुओं के लिए प्रयुक्त हुआ है, श्रावकों के लिए नहीं। जहाँ कहीं भी जैन श्रावकों का प्रसंग आया है, वहाँ सर्वत्र 'निग्गंठस्स नाथपुत्तस्स सावका' (निर्ग्रन्थ ज्ञातपुत्र के श्रावक) अथवा निग्गंठसावक (निर्ग्रन्थों के श्रावक) इस प्रकार श्रावक शब्द का ही उल्लेख हुआ है, न कि 'निग्गंथ' शब्द का। इसलिए 'निग्गंठ' शब्द का 'श्रावक' अर्थ लगाना कोरी हठधर्मी है।" (अ.भ.म./पृ.३२२)।
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