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________________ ३१८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ०४ / प्र०२ अपनायी जाने वाली नग्नता कैसे स्वीकार कर ली? तत्पश्चात् भगवान् ने भिक्षुओं को एकत्र कर स्पष्ट आदेश दिया-'भिक्षुओ! किसी भी भिक्षु को तीर्थिकों के समान नग्नता नहीं अपनानी चाहिए। जो अपनायेगा उसे स्थूलात्यय दोष लगेगा।" पालिमूल इस प्रकार है "तेन खो पन समयेन अञ्जतरो भिक्खु नग्गो हुत्वा येन भगवा तेनुपसङ्कमि। उपसङ्कमित्वा भगवन्तं एतदोवाच-"भगवा, भन्ते! अनेकपरियायेन अप्पिच्छस्स सन्तुस्स सल्लेखस्स धुतस्स पासादिकस्स अपचयस्स विरियारम्भस्स वण्णवादी। इदं, भन्ते! नग्गियं अनेक-परियायेन अप्पिच्छताय सन्तुहिताय सल्लेखाय धुतत्ताय पासादिकाय अपचयाय विरियारम्भाय संवत्तति। साधु भन्ते! भगवा भिक्खूनं नग्गियं अनुजानातू" ति। विगरहि बुद्धो भगवा-"अननुच्छविकं मोघपुरिस! अननुलोमिकं, अप्पत्तिरूपं, अस्सामणकं, अकप्पियं, अकरणीयं। कथं हि नाम त्वं मोघपुरिस! नग्गियं तित्थियसमादानं समादियि-स्ससि? नेतं मोघपुरिस! अप्पसन्नानं वा पसादाय --- पे० ---।" विगरहित्वा धम्मिं कथं कत्वा भिक्खू आमन्तेसि-"न, भिक्खवे! नग्गियं तित्थियसमादानं समादियितब्बं । यो समादियेय्य आपत्ति थुल्लच्चयस्सा" ति। (नग्गिकपटिक्खेपकथा / चीवरक्खन्धक । विनयपिटक-महावग्गपालि / पृ.४९१-९२)। यहाँ नग्न होकर आये भिक्षु के द्वारा इच्छाओं को अल्प करनेवाले नग्नत्व के अपनाने का समर्थन निश्चितरूप से निर्ग्रन्थों के नग्नत्व की ओर संकेत करता है, क्योंकि आजीविकों के अहेतुवादी होने से उनका नग्नत्व अपरिग्रहसिद्धान्त का प्रतिपादक नहीं था। नग्नता एवं कुशचीरादि धारण करने का निषेध इसी प्रकार कोई भिक्षु कुशचीर (कुशनिर्मित वस्त्र) पहन कर आया, कोई वल्कलचीर और कोई फलकचीर। कोई केशों से बना कम्बल ओढ़कर आया और कोई बालकम्बल ओढ़कर। कोई उलूकपंखनिर्मित वस्त्र धारण करके आया और कोई मृगचर्म। और प्रत्येक ने इन के धारण करने से वही लाभ बतलाये जो पूर्व में नग्न रहने से बतलाये गये थे। किन्तु भगवान् बुद्ध ने सबकी पूर्ववत् निन्दा की और भिक्षुओं को आमंत्रित कर आदेश दिया-"भिक्षुओ! ये मृगचर्म आदि तीर्थंकों की पहचान हैं, इन्हें धारण नहीं करना चाहिए। जो धारण करेगा उसे स्थलात्यय दोष लगेगा।१७५ ७५. "न भिक्खवे! अजिनक्खिपं तित्थियधजं धारेतब्बं । यो धारेय्य आपत्ति थुल्लच्चयस्सा ति।" कुसचीरादि-पटिक्खेपकथा / चीवरक्खन्धक / विनयपिटक-महावग्गपालि / पृ. ४९२ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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