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________________ अ०४/प्र०२ जैनेतर साहित्य में दिगम्बरजैन मुनियों की चर्चा / ३१५ कात्यायन, संजय वेलट्ठिपुत्र एवं निगण्ठनाटपुत्र, क्या ये सभी अपने उपदेश में बताये गये (प्रतिज्ञात) सिद्धान्तों को स्वयं साक्षात्कार करके जानते हैं? या सभी नहीं जानते? या इनमें से कुछ जानते हैं, कुछ नहीं जानते ?" इन छह सम्प्रदायप्रवर्तकों में निर्ग्रन्थसम्प्रदाय के प्रणेता तीर्थंकर महावीर का उल्लेख निगण्ठनाटपुत्त नाम से किया गया है। उनके नाम में निगण्ठ (निर्ग्रन्थ) शब्द का प्रयोग सूचित करता है कि वे बौद्धसम्प्रदाय में अपरिग्रहात्मक अचेलधर्म के प्रणेता के रूप में प्रसिद्ध थे। अजातशत्रु के एक मंत्री द्वारा निगण्ठनाटपुत्त की प्रशंसा एक बार पूर्णिमा की रात्रि में राजा अजातशत्रु अपने अमात्यों के साथ छत पर बैठा हुआ था। उसने इच्छा प्रकट की, कि इस समय किसी श्रमण या ब्राह्मण से धर्मचर्चा की जाय, जिससे चित्त प्रमुदित हो उठे? तब उसके किसी मंत्री ने पूर्णकाश्यप की प्रशंसा की, किसी ने मक्खलि गोसाल की, किसी ने अजितकेशकम्बल की, किसी ने प्रक्रुध कात्यायन की, किसी ने सञ्जयवेलट्ठिपुत्त की, किसी ने निगण्टनाटपुत्त की और जीवक कौमारभृत्य (वैद्य) ने गौतमबुद्ध की। निगंठनाटपुत्त (भगवान् महावीर) की प्रशंसा करने वाला मंत्री कहता है "अयं, देव, निगण्ठो नाटपुत्तो सङ्घी चेव गणी च गणाचरियो च, जातो, यसस्सी, तित्थकरो, साधुसम्मतो बहुजनस्स, रत्तजू, चिरपब्बजितो, अद्धगतो, वयोअनुप्पत्तो। तं देवो निगण्ठं नाटपुत्तं पयिरुपासतु। अप्पेव नाम देवस्स निगण्ठं नाटपुत्तं पयिरुपासतो चित्तं पसीदेय्या" ति। (सामञफलसुत्तं / छ अञतित्थिया / दीघनिकायपालि / भा.१ / पृ. ५३)। __अनुवाद-"देव! ये निगण्ठनाटपुत्त आजकल अपने बृहत् शिष्यसंघ से घिरे रहते हैं, ये गणी हैं, गणाचार्य हैं, तत्त्वज्ञानी हैं, लोकविख्यात हैं, तीर्थंकर (स्वतंत्र मत के प्रतिपादक) हैं, समाज में प्रतिष्ठित हैं, चिर प्रव्रजित हैं और अन्य आचार्यों से वृद्ध भी हैं। अच्छा हो कि देव! उनके पास चलकर धर्मचर्चा करें। हो सकता है, इस धर्मचर्चा से आपका मन प्रमुदित हो उठे।" बुद्धेतर छह तीर्थकों में निर्ग्रन्थ के आचार का निरूपण अजातशत्रु उपर्युक्त छह आचार्यों को छोड़कर गौतम बुद्ध के पास जाता है और उनसे श्रामण्य का फल पूछता है। बुद्ध कहते हैं कि इस प्रश्न का उत्तर तुमने किसी For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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