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________________ ३१६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ० ४ / प्र० २ अन्य श्रमण-ब्राह्मण से पूछा है? तब अजातशत्रु उपर्युक्त छह आचार्यों के मत का निरूपण करता है। वह बतलाता है कि पूरण काश्यप अक्रियवादी है, क्योंकि वह मानता है कि हिंसा, असत्य भाषण, चोरी, परस्त्रीगमन आदि करने-कराने से न कोई पाप होता है, न दान, यज्ञ आदि करने से कोई पुण्य । मक्खलिगोसाल अहेतुवादी है । वह कहता है कि प्राणियों के सुख-दुःख का कोई कारण नहीं है। वे भाग्य या संयोग से ही हुआ करते हैं। अजितकेशकम्बल उच्छेदवादी है। उसकी मान्यता है कि न कोई पुण्य होता है, न पाप, न उनका कोई अच्छा-बुरा फल होता है, न स्वर्ग है, न नरक, न आत्मा, न मोक्ष । देहपात के बाद सब नष्ट हो जाता है। मरने के बाद कुछ भी नहीं रहता । प्रक्रुध कात्यायन अकृतवाद का प्रणेता है । वह मानता है कि संसार के पदार्थ अचल और निष्क्रिय हैं। वे किसी को सुख-दुःख उत्पन्न करने में समर्थ नहीं हैं। संजयवेलट्ठपुत्त अनिश्चयवादी है। परलोक के विषय में पूछने पर वह कहता है - " यदि मैं समझँ कि परलोक है, तभी न मैं आपको बताऊँ कि परलोक है । परन्तु मैं ऐसा भी नहीं कहता, मैं वैसा भी नहीं कहता, मैं अन्यथा ( दूसरी तरह से) भी नहीं कहता, मैं यह भी नहीं कहता कि यह नहीं है, मैं यह भी नहीं कहता कि यह नहीं नहीं है। परलोक नहीं है, परलोक है भी और नहीं भी, परलोक न है, न नहीं है।" (सामञ्ञफलसुत्त / छ तित्थियवादा / दीघनिकायपालि / भा. १/ पृ. ५७-६५) । इन पाँच दार्शनिकों के मतों का निरूपण करने के बाद राजा अजातशत्रु गौतम बुद्ध से कहता है कि इसी प्रकार एक बार मैंने निगंठनाटपुत्त के पास जाकर श्रमणभाव के पालन का फल पूछा। तब वे बोले – “इध, महाराज! निगण्ठो चातुयामसंवरसंवुतो होति। कथं च, महाराज! निगण्ठो चातुयामसंवरसंवुतो होति ? इध, महाराज! निगण्ठो सब्बवारिवारितो च होति, सब्बवारियुत्तो च, सब्बवारिधुतो च, सब्ब - वारिफुटो च। एवं खो, महाराज! निगण्ठो चातुयामसंवरसंवुतो होति । यतो खो, महाराज! निगण्ठो एवं चातुयामसंवरसंवुतो होति, अयं वुच्चति, महाराज! निगण्ठो गतत्तो च यतत्तो च ठितत्तो चा ति ।" (सामञ्ञफलसुत्त / छ तित्थियवादा / दीघनिकायपालि / भा. १/पृ.६३) । अनुवाद - "महाराज ! निर्ग्रन्थ (जैन साधु) चार संवरों (संयमों) से संवृत (संयत ) रहता है। महाराज ! निर्ग्रन्थ चार संवरों से संवृत कैसे रहता है ? महाराज ! निर्ग्रन्थ १. जल के व्यवहार का अधिक से अधिक वारण करता है ( ताकि जल में रहने वाले सूक्ष्म जीवों का हनन न हो), २. सभी प्रकार के पापों को धो डालने में तत्पर रहता है, ३. सभी प्रकार के पापों के निवारण से धुतपाप (पापरहित) होता है और ४. भविष्य में होने वाले पापों के निवारण में लगा रहता है। महाराज ! इस प्रकार Jain Education International For Personal & Private Use Only wwww.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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