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________________ अ०४/प्र०२ जैनेतर साहित्य में दिगम्बरजैन मुनियों की चर्चा / ३११ की चर्चा तो एक ही स्थान पर है। आगे बौद्धसाहित्य के उन प्रसंगों को उपस्थित किया जा रहा है, जिनमें निर्ग्रन्थों और उनके नग्नत्व की चर्चा की गई है। १.१. अंगुत्तरनिकाय में निर्ग्रन्थों की नग्नता का द्योतन प्राचीन बौद्धसाहित्य 'त्रिपिटक' नाम से प्रसिद्ध है। २९ वर्ष ईसा पूर्व श्रीलंका में राजा वट्टगामिनी के समय में प्रथम बार त्रिपिटकों को लिपिबद्ध किया गया। 'अंगुत्तरनिकाय' त्रिपिटकों में सुत्तपिटक का चौथा ग्रन्थ है। अतः उसकी प्राचीनता प्रमाणित है। उसमें एक 'निगण्ठसुत्त' है, जिसमें निर्ग्रन्थों के दस असद्धर्मों (दोषों) का वर्णन किया गया है। उनमें एक निर्लज्जता नामक असद्धर्म भी बतलाया गया है। सुत्त का वह अंश इस प्रकार है "दसहि भिक्खवे असद्धम्मेहि समन्नागता निगण्ठा। कतमेहि दसहि? अस्सद्धा भिक्खवे निगण्ठा। दुस्सीला भिक्खवे निगण्ठा। अहिरिका भिक्खवे निगण्ठा। ---" (अंगुत्तरनिकाय / भा.४ / आकडवग्गो/ निगण्ठसुत्त)। अनुवाद-"भिक्षुओ! निर्ग्रन्थों में दस असद्धर्म हैं। कौन से दस असद्धर्म? भिक्षुओ! निर्ग्रन्थ श्रद्धारहित हैं। भिक्षुओ! निर्ग्रन्थ दुःशील हैं। भिक्षुओ! निर्ग्रन्थ अह्रीक (निर्लज्ज) हैं।" यहाँ अह्रीकता (निर्लज्जता) नामक असद्धर्म का उल्लेख कर निर्ग्रन्थों की नग्नता का द्योतन किया गया है, क्योंकि लोक में नग्न रहना निर्लज्जता का लक्षण माना गया है। श्वेताम्बर-साहित्य में भी कहा गया है __ "तिहिं ठाणेहिं वत्थं धारेज्जा। तं जहा-हिरिपत्तियं, दुगुंछापत्तियं, परीसहपत्तियं।" (स्था.सू./३/३/३४७/पृ.१५०)। __ अनुवाद-"तीन कारणों से वस्त्रधारण करना चाहिए : ह्री (लज्जा) का अनुभव होने पर, जुगुप्सा की प्रतीति होने पर तथा परीषह-सहन की सामर्थ्य न होने पर।" प्रवचनपरीक्षा नामक श्वेताम्बरग्रन्थ में दिगम्बर मुनियों की निन्दा करते हुए कहा गया है-"वस्त्राभावे च रासभादिवदविशेषेण लज्जाराहित्यं स्यात्। (१/२/३०/ पृ. ९१)। अर्थात् वस्त्रधारण न करने पर गर्दभ आदि पशुओं के समान निर्लज्जता प्रकट होती है।" ___इसी कारण बौद्धसाहित्य और श्वेताम्बरसाहित्य में दिगम्बरजैन मुनियों को अह्रीक कहा गया है। बौद्ध वंशसाहित्य के दाठावंस (१३वीं शताब्दी ई०) में भी निगण्ठों ७१. जातकपालि / भा.२ / प्रस्ता./ पृ.११/ विपश्यना विशोधन विन्यास, इगतपुरी, १९९८ ई० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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