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________________ द्वितीय प्रकरण बौद्धसाहित्य में दिगम्बरजैन मुनि १ प्राचीन बौद्धसाहित्य में दिगम्बरजैन मुनियों का उल्लेख श्वेताम्बरमुनि श्री कल्याणविजय जी ने लिखा है कि "बौद्धों के प्राचीन शास्त्रों में नग्न जैन साधुओं का कहीं उल्लेख नहीं है और विसाखावत्थु, धम्मपद - अट्ठकथा, दिव्यावदान आदि में जहाँ नग्न निर्ग्रन्थों का उल्लेख मिलता है, वे ग्रन्थ उस समय के हैं, जब कि यापनीयसंघ और आधुनिक सम्प्रदाय तक प्रकट हो चुके थे। डायोलोग्स ऑव् बुद्ध नामक पुस्तक के ऊपर से बौद्ध ग्रन्थों में वर्णित कुछ आचार भगवान् महावीर और महात्मा बुद्ध नामक पुस्तक (पृष्ठ ६१-६५) में दिये गये हैं, जिनमें 'नग्न' रहने और हाथ में खाने का भी उल्लेख है । पुस्तक के लेखक बाबू कामताप्रसाद की दृष्टि में ये आचार प्राचीन जैन साधुओं के है, परन्तु वास्तव में यह बात नहीं है । मज्झिमनिकाय में साफ-साफ लिखा गया है कि ये आचार आजीविक संघ के नायक गोशालक तथा उनके मित्र नन्दवच्छ और किस्ससंकिच्च के हैं, जिनका बुद्ध के समक्ष निग्गंथश्रमण सच्चक ने वर्णन किया था । " ६९ ७० यद्यपि मुनि जी का यह कथन सत्य है कि बाबू कामताप्रसाद जी ने उपर्युक्त पुस्तक में जिन आचारों को जैन साधुओं का आचार बतलाया है, वे वस्तुतः आजीविक साधुओं के आचार हैं, ° तथापि यह कथन सत्य नहीं है कि प्राचीन बौद्ध शास्त्रों में नग्न जैन साधुओं का कहीं उल्लेख नहीं है । सर्वप्रथम तो प्राचीन बौद्धसाहित्य में अनेकत्र निगण्ठनातपुत्त या निगण्ठनाटपुत्त (निर्ग्रन्थ ज्ञातपुत्र) के नाम से भगवान् महावीर की तथा निगण्ठ शब्द से उनके अनुयायी साधुओं की चर्चा की गई है और 'निर्ग्रन्थ' शब्द 'नग्न' या 'अचेलक' के अर्थ में शास्त्रप्रसिद्ध और लोकप्रसिद्ध है, यह द्वितीय अध्याय के षष्ठ प्रकरण में सप्रमाण सिद्ध किया जा चुका है। इसके अतिरिक्त अंगुत्तरनिकाय नामक प्राचीन (ईसापूर्ववर्ती) बौद्धग्रन्थ में निर्ग्रन्थों को अहिरिका ( अहीक = निर्लज्ज ) कहकर उनके नग्न रहने का द्योतन किया गया है। इस प्रकार बौद्धों के प्राचीन साहित्य में सर्वत्र नग्न जैन मुनियों का ही उल्लेख है, श्वेताम्बर जैन मुनियों ६९. श्रमण भगवान् महावीर / पृ. ३३० - ३३१ । ७०. “सेय्यथीदं-नन्दो वच्छो, किसो सङ्किच्चो, मक्खलि गोसालो - एते हि भो गोतम! अचेलका मुत्ताचारा, हत्थापलेखना ।" महासच्चकसुत्तं / मज्झिमनिकाय / १ . मूलपण्णासक / पृ. २९२/ बिहार राजकीय पालि प्रकाशन मण्डल । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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