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________________ ३०८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ०४/प्र०१ ३३ आजीविक साधु की भी 'क्षपणक' संज्ञा संभव नहीं चूँकि 'आजीविक' बहुत प्राचीन सम्प्रदाय था और इस सम्प्रदाय के साधु भी नग्न रहते थे, इसलिए डॉ० हार्नले के समान कोई आधुनिक विद्वान् यह भी कह सकता है कि 'महाभारत' आदि में 'क्षपणक' शब्द का प्रयोग आजीविक साधुओं के लिए किया गया है। किन्तु यह कथन सर्वथा असंगत होगा। इसके निम्नलिखित कारण हैं १. 'क्षपणक' शब्द नग्न मुनिमात्र का वाचक नहीं है, बल्कि सम्प्रदायविशेष के अर्थात् दिगम्बरजैन सम्प्रदाय के नग्न मुनि का वाचक है। श्वेताम्बरग्रन्थों में आजीविक साधुओं को 'आजीविक' और 'पाण्डुरंग' (भस्मलिप्त श्वेतांगवाला) शब्दों से उल्लिखित किया गया है, 'बोटिक' या 'क्षपणक' शब्द से नहीं। संस्कृतसाहित्य में "क्षपणक' को 'जिन' या 'अरहन्त' का अनुयायी, मयूरपिच्छीधारी, 'धर्मवृद्धि' का आशीर्वाद देनेवाला आदि विशेषणों के साथ वर्णित किया गया है, जो दिगम्बरजैन साधु के विशिष्ट लक्षण हैं। अतः 'क्षपणक' शब्द दिगम्बरजैन मुनि के ही अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। हाँ, 'आजीविक' शब्द का प्रयोग अवश्य, नाग्न्य-सादृश्य के कारण भ्रमवश चोलराजा (१३-१४वीं शताब्दी ई०) के शिलालेखों में दिगम्बरजैन साधुओं के लिए किया गया है, किन्तु आजीविकों के लिए क्षपणक, बोटिक या निर्ग्रन्थ शब्द का प्रयोग कहीं भी नहीं हुआ है। यदि एक भी ग्रन्थ या अभिलेख में 'पाण्डुरंग' (भस्मलिप्त श्वेतशरीर) तथा 'एकदण्डधारी' विशेषणों के साथ किसी नग्न साधु के लिए 'क्षपणक' शब्द का प्रयोग मिल जाय, तो माना जा सकता है कि 'क्षपणक' शब्द नग्नमुनिमात्र का वाचक है और उससे 'आजीविक' साधु का भी बोध होता है। इसी प्रकार एक भी ग्रन्थ में 'रजोहरण' और 'मुखवस्त्रिका' के चिह्नों के साथ 'क्षपणक' शब्द का व्यवहार उपलब्ध होने पर यह स्वीकार किया जा सकता है कि 'क्षपणक' शब्द श्वेताम्बरजिनकल्पी मुनि का भी बोधक है। तथैव एक भी ग्रन्थ में 'धर्मलाभ' के आशीर्वचन सहित किसी नग्न मुनि के लिये 'क्षपणक' शब्द प्रयुक्त हुआ दिखाई दे, तो यह मानने में संकोच नहीं हो सकता कि यापनीयसाधु भी क्षपणक कहलाते थे। किन्तु किसी भी ग्रन्थ या शिलालेख में उपर्युक्त लक्षणों के साथ 'क्षपणक' शब्द का प्रयोग उपलब्ध नहीं होता। सर्वत्र 'नग्न', 'आहत', 'जिनानुयायी' 'मयूरपिच्छधारी' एवं 'धर्मवृद्धि का आशीर्वाद देनेवाला' इन विशेषणों में से ही किसी विशेषण के साथ 'क्षपणक' शब्द का प्रयोग मिलता है। अतः यह निर्विवादरूप से सिद्ध होता है कि 'क्षपणक' शब्द से सर्वत्र दिगम्बरजैन मुनि का ही वर्णन किया गया है, 'आजीविक' आदि का नहीं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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