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________________ अ०४/प्र०१ ___ जैनेतर साहित्य में दिगम्बरजैन मुनियों की चर्चा / ३०७ गये संवत् १२९५-१२९६, १३०० और १३१६ के शिलालेखों मे आजीविकों पर कर लगाने का उल्लेख कैसे होता? ___ "उत्तर यह है कि उक्त लेखों में आजीविकों पर कर लगाने का जो उल्लेख है, वह गोशालकशिष्य आजीविकों के लिये नहीं, किन्तु आजीविकों के सादृश्य से पिछले समय में 'आजीविक' नामप्राप्त 'दिगम्बर' जैनों के लिये है। - "दक्षिण भारत आजीविक और दिगम्बरजैन दोनों ही का मुख्य विहारक्षेत्र था। यही नहीं, दोनों ही सम्प्रदायवाले दिगम्बर और अवैदिक भिक्षु थे। इस कारण सर्वसाधारण में उन दोनों का भेद समझना सहज नहीं था। लोग आजीविकों को दिगम्बर समझ लेते थे और दिगम्बरों को आजीविक भी। परन्तु जब से खरे आजीविक आजीविक मिटकर पंडुरंगादि नामों से प्रसिद्ध हो वैष्णवादि सम्प्रदायों में मिल गये, तब से आजीविक नाम केवल दिगम्बरजैनों के लिये ही रह गया। धनञ्जय दिगम्बरजैनों के आजीविक नाम से प्रसिद्ध होने की जो बात कहता है, उसका कारण भी इससे समझ में आ जाता है, क्योंकि उस समय से बहुत पहले ही वास्तविक आजीविकों का अस्तित्व मिट चुका था और नग्न भिक्षुओं के लिये सुप्रसिद्ध 'आजीविक' नाम का प्रयोग नग्न भिक्षुओं के नाते दिगम्बरजैन साधुओं के लिये रूढ़ हो गया था। राजा 'राज' के लेखों में दिगम्बरजैनों के लिये जो 'आजीविक' शब्द प्रयुक्त हुआ है, उसका यही कारण है।" (अ.भ.म./ पृ.२८०-२८२)। ___ मुनि जी के कथन का सार यह है कि डॉ० हार्नले, कोषकार हलायुध तथा चोलराजा के राज्य की जनता ने नग्नता की समानता के कारण दिगम्बरसाधुओं को आजीविकसाधु मान लिया, जो गलत था। वे सर्वथा भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों के साधु थे। मुनि जी ने आजीविक साधुओं के लक्षण इस प्रकार बतलाये हैं १. वे मक्खलिपुत्र गोशालक के अनुयायी थे। २. नग्न रहते थे, एक दण्ड रखते थे और शरीर पर भस्म लगाते थे। ३. पाणिपात्र में भोजन लेकर ग्रहण करते थे एवं केशलोच भी करते थे, किन्तु मयूरपिच्छी नहीं रखते थे।६८ ४. शिवभक्त एवं नारायणभक्त थे। ५. साहित्य और शिलालेखों में दिगम्बरों और आजीविकों का अलग-अलग उल्लेख हुआ है। ६८. श्रमण भगवान् महावीर / पृ. २५९-२७५ तथा पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री : जैन साहित्य का इतिहास / पूर्वपीठिका / पृ. ४६३। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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