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________________ ३०६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ०४ / प्र० १ " दसवीं सदी के प्रसिद्ध जैन टीकाकार आचार्य शीलांक ने एकदण्डियों को शिवभक्त बताया है ।" (श्र.भ.म. / पृ. २७९-२८०) । 'ग्यारहवीं शताब्दी के टीकाकार भट्टोत्पल ने बृहज्जातक की टीका में 'आजीविकों' का अर्थ 'एकदण्डी' किया है और उन्हें 'नारायण' का भक्त लिखा है। 44 " उपर्युक्त प्रमाणों और नामोल्लेखों से जो निष्कर्ष निकलता है, उसका सार यह है कि बृहज्जातक के उल्लेख से पाया जाता है कि वराहमिहिर के समय अर्थात् विक्रम की छठी शताब्दी के उत्तरार्ध तक आजीविक विद्यमान थे और वे 'आजीविक' नाम से ही पहचाने जाते थे । " निशीथचूर्णि और ओघनियुक्ति के भाष्यकार के समय विक्रम की सातवीं शताब्दी में आजीविक 'गोशालकशिष्य' के नाम से प्रसिद्ध होने पर भी 'पाण्डुरभिक्षु' अथवा 'पाण्डुरंगभिक्षु' कहलाने लगे थे। " अनुयोगद्वारचूर्णि में 'पंडुरंग' शब्द का पर्याय 'सरजस्क' लिखा है। इससे हमें उनका 'पाण्डुरंग' यह नाम प्रचलित होने का कारण भी समझ में आ जाता है। आजीविक भिक्षु नग्न रहते थे, इस कारण संभव है कि शीतनिवारणार्थ शैव संन्यासियों की तरह इन्होंने भी अपने शरीर पर भस्म या किसी तरह की सफेद धूल (रजस्) लगाना शुरू कर दिया हो और इससे वे पांडुरंग ( भूरे रंगवाले) या 'पांडुराङ्ग' ( धूसर शरीरवाले) कहलाने लगे हों। कुछ भी हो, पर यह तो निश्चित है कि इन नामों के साथ ही आजीविक नये धर्म-सम्प्रदायों के निकट पहुँच चुके थे और इसका परिणाम वही हुआ जो होना चाहिये था। विक्रम की आठवीं सदी में पहुँच कर आजीविक अपना अस्तित्व खो बैठे। वे हमेशा के लिए शैव और वैष्णव सम्प्रदायों में मिलकर उन्हीं नामों से प्रसिद्ध हो गये। आचार्य शीलाङ्क इनको शैव और भट्टोत्पल नारायणभक्त बताते हैं, उसका यही कारण है। " दक्षिण भारत में तथा अन्यत्र आज तक निरंजनी आदि नग्न संन्यासियों की जमातें जो दृष्टिगोचर होती हैं, हमारे ख्याल से ये उसी नामशेष आजीविक संप्रदाय के अवशेष हैं। " अब हम एक शंका का निराकरण कर के इस लेख को पूरा करेंगे। " विक्रम की आठवीं शताब्दी में ही आजीविक सम्प्रदाय नामशेष हो गया था' हमारे इस कथन पर प्रश्न हो सकता है कि यदि आठवीं शताब्दी में ही आजीविकों की समाप्ति हो गई होती, तो विक्रम की तेरहवीं सदी के चौथे और चौदहवीं सदी के पहले चरण में चोलराजा 'राज' के द्वारा पेरुमाल के मन्दिर की दीवारों पर खुदवाये Jain Education International For Personal & Private Use Only wwww.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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