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________________ अ०४/प्र०१ जैनेतर साहित्य में दिगम्बरजैन मुनियों की चर्चा / ३०५ की है कि मेरे धर्म-महामात्र बौद्ध संघ के, ब्राह्मणों के, आजीविकों के, निर्ग्रन्थों के और वास्तविक भिन्नतावाले कुछ पाषण्डों के कार्य में व्याप्त हो जायेंगे। "तीसरा प्राचीन उल्लेख नागार्जुन की गुफा की दीवारों पर खुदे हुए अशोक के पुत्र दशरथ के लेख में आता है, जो इस प्रकार है-'यह गुफा महाराज दशरथ ने राजगद्दी पर आने के बाद तुरन्त आचन्द्रार्क निवास के लिए सम्मान्य आजीविकों को अर्पण की।' ___ "पहले जो आजीविकों के पास कालकाचार्य के निमित्तशास्त्र पढ़ने की बात कही गई है, उससे सिद्ध है कि विक्रम-पूर्व प्रथम शताब्दी में दक्षिण भारत में आजीविकों का खासा प्रचार था। आजीविकों का एक विचित्र वृत्तान्त सदजीरो सुगुइर (Sadajiro Suguira) 'हिन्दू लोजिक ऐज प्रीजर्व इन चाइना एण्ड जापान' नामक छोटे ग्रन्थ में आता है। ___ "उपोद्घात के पृष्ठ सोलह पर ग्रन्थकार कहता है-'चीनी और जापानी ग्रन्थकर्ता बार-बार इन महासम्प्रदायों में (अर्थात् सुप्रसिद्ध छः भारतीय सम्प्रदायों में) दो विशेष सम्प्रदायों का समावेश करते हैं जो 'निकेन्दब्री' और 'अशिविक' के नाम से पहिचाने जाते हैं और एक दूसरे से बिलकुल मिलते-जुलते हैं। ये दोनों मानते हैं कि पापी जावन का दण्ड जल्दी या देरी से चुकाना ही पड़ता है और इससे बचना अशक्य होने से जैसे भी हो यह जल्दी ही चुकाना अच्छा है, जिससे कि भावी जीवन आनन्द में निर्गमन हो सके। इस प्रकार इनके विचार तापसिक थे। उपवास, मौन, अचलासन और आकंठ अपने को दबाये रखना ये इनकी तपस्या के बोधक थे। सम्भवतः ये सम्प्रदाय जैन अथवा किसी अन्य हिन्दू सम्प्रदाय की प्रशाखायें थीं।' "उक्त लेख में उल्लिखित 'निकेन्दब्री' और 'अशिविक' क्रमशः निर्ग्रन्थव्रती और आजीविक हैं, इसमें कुछ भी संशय नहीं है। "बृहज्जातक के प्रव्रज्यायोग-प्रकरण में वराहमिहिर ने जो सात भिक्षुवर्ग बताये हैं, उनमें आजीविक भी शामिल हैं। "विक्रम की सातवीं सदी की कृति निशीथचूर्णि में 'आजीविक' शब्द का परिचय देते हुए चूर्णिकार जिनदासगणि महत्तर लिखते हैं-'आजीवक गोशालक-शिष्य होते हैं, जो पंडरभिक्षुक भी कहलाते हैं।' ओघनियुक्ति-भाष्यकार भी आजीविकों का पांडुरंग नाम से व्यवहार करते हैं, जैसा कि पहले बताया जा चुका है। "अनुयोगद्वार चूर्णि में 'पंडरंग' शब्द का पर्याय बताते हुए चूर्णिकार कहते हैं-"पंडरंगा सा (सस) रक्खा" अर्थात् 'पंडरंग' का अर्थ 'सरजस्क' भिक्षु है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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