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३०४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
अ०४/प्र०१ "साधु वर्षा-चातुर्मास्य के लिए ग्राम में प्रवेश करें, उस समय होने वाले अपशकुनों का वर्णन करते हुए उक्त भाष्यकार कहते हैं
चक्कयरंमि भमाडो, भुक्खामारो य पंडुरंगंमि।
तच्चन्निअ रुहिरपनं, बोडियमसिए धुवं मरणं॥१०७॥ "अर्थात् (ग्राम में प्रवेशक करते समय) चक्रधर भिक्षु सामने मिले, तो चातुर्मास्य में भटकना पड़े, पांडुरंग आजीविक भिक्षु सामने मिले, तो भूख और मार सहन करनी पड़े बौद्ध भिक्षु के सामने मिलने पर खून गिरे और बोटिक (दिगम्बरजैन) तथा असितभौत नामक भिक्षुओं के सामने मिलने पर निश्चित मरण हो।
"उपर्युक्त गाथा में आजीविकों के लिए पांडुरंग और दिगम्बरों के लिए बोडिय नाम प्रयुक्त हुए हैं। यदि वे दोनों एक ही होते तो उनका भिन्न-भिन्न नामों से उल्लेख करने की कुछ भी आवश्यकता नहीं रहती।
"इन सब बातों का विचार करने पर यह बात निश्चित हो जाती है कि दिगम्बरजैन मूल निर्ग्रन्थसंघ का ही एक विभाग है। आजीविक या त्रैराशिकों से इसका कुछ भी सम्बन्ध नहीं। (अ.भ.म./ पृ.२७८-२७९)।
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आजीविकों का इतिहास प्रसंगवश आजीविकों के इतिहास पर प्रकाश डालते हुए मुनि श्री कल्याणविजय जी लिखते हैं
"अब हम आजीविकों के इतिहास पर दृष्टिपात करेंगे। बौद्ध महावंश में लंका के राजा 'पांडुकाभय' के आजीविकों के लिये एक मकान बनवाने का उल्लेख है। यदि महावंशकार का यह कथन ठीक हो तो ई० स० पूर्व पाँचवी सदी के अंतिम चरण तक आजीविक लंका तक पहुँच गये थे, यही कहना चाहिये।
"उपलब्ध साधनों में आजीविकों के सम्बन्ध में सबसे प्राचीन उल्लेख तो गया के पास बर्बर पहाड़ की एक गुफा की दीवार पर खुदे हुए अशोक के एक लेख में है। इसमें लिखे मुजब यह लेख महाराजा अशोक के राज्य में तेरहवें वर्ष में खोदा गया था। इस लेख का भाव यह है-"राजा प्रियदर्शी ने अपने राज्य के तेरहवें वर्ष में यह गुफा आजीविकों को अर्पण की।"
"दूसरा उल्लेख इसी महाराज अशोक के शासनस्तंभों में के सातवें स्तम्भ पर राज्य के २८वें वर्ष में खुदे हुए लेख में आता है, जो इस प्रकार है- "मैंने योजना
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