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________________ ३०० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ०४ / प्र० १ ३० ' क्षपणक' शब्द यापनीयसाधु का भी वाचक नहीं जैसा कि पूर्व (अध्याय २/ प्र.२ / शी. ३) में कहा गया है, मुनि श्री कल्याणविजय जी ने 'क्षपणक' (खमण) का अर्थ यापनीय साधु माना है । ( ' क्षपणक' का प्राकृतरूप 'खमण' है। देखिये, अ.४/प्र.१ / शी. ५/प्र.परी./गा. ७१) । अब यहाँ इतिहासकार श्वेताम्बर मुनियों की स्वच्छन्द कपोलकल्पनाओं का मनोरंजक दृश्य उपस्थित होता है। एक मुनिश्री कहते हैं कि ' क्षपणक' शब्द का अर्थ श्वेताम्बर - जिनकल्पी मुनि है, दूसरे कहते हैं कि वह यापनीयसाधु का पर्यायवाची है। इससे सिद्ध है कि दोनों मान्य मुनियों ने प्रमाणों के आधार पर नहीं, अपितु मनःकल्पनाओं के आधार पर कल्पित इतिहास रचने की चेष्टा की है। यदि बात प्रमाणों के आधार पर की जाती, तो दोनों मुनियों का एक ही निष्कर्ष होता, परस्पर विरुद्ध नहीं । सत्य यह है कि ' क्षपणक' शब्द यापनीयसाधु का भी वाचक नहीं है। इसके निम्नलिखित कारण हैं १. समस्त प्राचीन श्वेताम्बरग्रन्थों में एक स्वर से स्त्रीमुक्तिविरोधी दिगम्बरजैन मुनियों को ही 'बोटिक' और 'क्षपणक' कहा गया है, इसलिए मुनि कल्याणविजय जी का यह कथन सर्वथा मनःकल्पित है कि दक्षिण भारत में जाने पर बोटिक अर्थात् दिगम्बरजैन 'यापनीय' और 'क्षपणक' (खमण) नाम से प्रसिद्ध हुए। (श्र.भ.म. / पृ. ३०१ ) । ' क्षपणक' नाम से तो वे पहले से ही प्रसिद्ध थे । 'यापनीय' नाम से प्रसिद्ध हुए, इसका कोई साहित्यिक या शिलालेखीय प्रमाण नहीं है। दक्षिणभारत में यापनीयसम्प्रदाय की नवीन उत्पत्ति हुई थी, वह भी श्वेताम्बरसम्प्रदाय से ही । इसका सप्रमाण प्रतिपादन 'यापनीयसंघ का इतिहास' नामक अध्याय में द्रष्टव्य है । Jain Education International २. भारतीय साहित्य में ' क्षपणक' शब्द का प्रयोग यापनीयों की उत्पत्ति के बहुत पहले से मिलता है । महाभारत की रचना ई. पू. ४०० से ई. पू. १०० के बीच हुई है। उसमें नग्नक्षपणक का उल्लेख है, जबकि 'यापनीय' शब्द का उल्लेख पाँचवीं शताब्दी ई० के पूर्व भारतीय साहित्य के किसी भी ग्रन्थ या शिलालेख में नहीं मिलता। सर्वप्रथम उल्लेख सन् ४७० - ४९० के बीच लिखे गये दक्षिणभारत के कदम्बवंशीय राजा मृगेशवर्मा के हल्सी - दानपत्र ( लेख क्र. ९९) में हुआ है । उसमें लिखा है उक्त राजा ने यापनीयों, निर्ग्रन्थों और कूर्चकों को भूमिदान किया था । ६७ इस उल्लेख के आधार पर यदि यापनीयसंघ को दान दिये जाने योग्य लोकमान्यता और राजमान्यता ६७. “ श्रीविजयपलाशिकायां यापनीयनिर्ग्रन्थकूर्च्चकानां दत्तवान्।" जै.शि.सं./ मा.च / भा.२ । For Personal & Private Use Only wwww.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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