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अ०४/प्र०१
जैनेतर साहित्य में दिगम्बरजैन मुनियों की चर्चा / २९९ होगा। तुम मायाबल से सोलह हजार मायामय शास्त्रों की अपभ्रंशभाषा में रचना करो, जो श्रौत और स्मार्त आचार के विरुद्ध तथा वर्णाश्रम-व्यवस्था से रहित हों और कर्मसिद्धान्तप्रधान हों
अरिहन्नाम ते स्यात्तु ह्यन्यानि च शुभानि च। स्थानं वक्ष्यामि ते पश्चाच्छृणु प्रस्तुतमादरात्॥ मायिन्मायामयं शास्त्रं तत्षोडशसहस्रकम्। श्रौतस्मार्तविरुद्धं च वर्णाश्रमविवर्जितम्॥ अपभ्रंशमयं शास्त्रं कर्मवादमयं तथा।
रचयेति प्रयत्नेन तद्विस्तारो भविष्यति॥६५ उस मुण्डी ने अपने जैसे चार शिष्यों की रचना की तथा उन्हें मायामय शास्त्र पढ़ाये। वे चारों मुण्डी पाषण्ड (वेदविरुद्ध) धर्म के अनुयायी थे, हाथ में पात्र लिए हुए थे, वस्त्र से मुख आच्छादित किये हुए थे, शरीर पर मैले वस्त्र थे, और 'धर्मलाभ हो' ऐसा आशीर्वाद दे रहे थे। हाथ में वस्त्रखण्ड निर्मित मार्जनी (रजोहरण) विद्यमान थी तथा जीवहिंसा के भय से धीरे-धीरे चल रहे थे
चत्वारो मुण्डिनस्तेऽथ धर्मं पाषण्डमाश्रिताः। हस्ते पात्रं दधानाश्च तुण्डवस्त्रस्य धारकाः॥ मलिनान्येव वासांसि धारयन्तो ह्यभाषिणः। धर्मो लाभः परं तत्त्वं वदन्तस्त्वतिहर्षतः॥ मार्जनी ध्रियमाणश्च वस्त्रखण्डविनिर्मिताम्।
शनैः शनैश्चलन्तो हि जीवहिंसाभयाद् ध्रुवम्॥ ६६ यहाँ विष्णु के द्वारा रचे गये मायामय पुरुष को मैलेवस्त्र, काष्ठनिर्मितपात्र, रजोहरण एवं मुखवस्त्रिका धारण किये हुए तथा धर्मलाभ का आशीर्वाद देते हुए दिखलाया गया है। ये श्वेताम्बरमुनि के लक्षण हैं। शिवमहापुराण के कर्ता ने इन लक्षणोंवाले उक्त पुरुष को 'अरिहन्' नाम से सम्बोधित किया है, किन्तु 'क्षपणक' या 'निर्ग्रन्थ' नाम प्रयुक्त नहीं किया। इन उदाहरणों से सिद्ध है कि जैन-जैनेतर सम्प्रदायों में श्वेताम्बर मुनि 'श्वेतवस्त्र', 'श्वेतपट' और 'सिताम्बर' नामों से ही प्रसिद्ध थे, 'क्षपणक' या 'निर्ग्रन्थ' नाम से नहीं।
६५. वही/श्लोक ९-११/ पृ.४३२। ६६. वही/श्लोक २८-३०/ पृ.४३३।
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