SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 492
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २९८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ ( सियंबर) शब्द से श्वेताम्बरों का अभिधान किया गया है । यथा पेच्छइ परिभमंतो दाहिणदेसे सियंबरं पणओ । तस्स सगासे धम्मं सुणिऊण तओ समाढत्तो ॥ अनुवाद–“ राज्यच्युत राजा सौदास को दक्षिणदेश में भ्रमण करते हुए श्वेताम्बरमुनि के दर्शन होते हैं। उनसे वह धर्म का श्रवण कर श्रावकव्रत ग्रहण करता है।" 'हलायुधकोश' (अभिधानरत्नमाला) में जहाँ दिगम्बर जैनमुनि को 'क्षपण', 'निर्ग्रन्थ' और 'मलधारी' कहा गया है, वहीं रजोहरण एवं श्वेतवस्त्र धारण करनेवाले मुनि का 'सिताम्बर' नाम बतलाया गया है रजोहरणधारी च श्वेतवासाः सिताम्बराः ॥ २/१८९॥ नग्नाटो दिग्वासाः क्षपणः श्रमणश्च जीवको जैनाः । आजीवो मलधारी निर्ग्रन्थः कथ्यते सद्भिः ॥ २ / १९० ॥ वैदिकपरम्परा के शिवमहापुराण में जैनमतोत्पत्ति की कल्पित कथा प्रस्तुत करते हुए श्वेताम्बरमुनियों की चर्चा की गयी है, किन्तु वहाँ उन्हें अरिहन् कहा गया है, क्षपणक या निर्ग्रन्थ नाम प्रयुक्त नहीं किया गया। प्रमाण के लिए कथा का सम्बन्धित अंश नीचे दिया जा रहा है त्रिपुरवासी दैत्यों का वध करने के लिए उनके धर्म में विघ्न उपस्थित करना आवश्यक था। इस हेतु भगवान् विष्णु ने अपने शरीर से एक मायामय पुरुष की सृष्टि की। उसका सिर मुड़ा हुआ था, शरीर पर मैले वस्त्र थे, हाथ में गुम्फिपात्र (काष्ठनिर्मित पात्र) और पुंजिका (रजोहरण) विद्यमान थी तथा मुख वस्त्रखण्ड से आच्छादित था असृजच्च महातेजाः पुरुषं एकं मायामयं तेषां Jain Education International मुण्डिनं म्लानवस्त्रं च दधानं पुञ्जिकां हस्ते " अ० ४ / प्र० १ स्वात्मसम्भवम् । धर्मविघ्नार्थमच्युतः ॥ २२ / ७८ ॥ गुम्फिपात्रसमन्वितम् । चालयन्तं पदे पदे ॥ वस्त्रयुक्तं तथा हस्तं क्षीयमाणं मुखे सदा । धर्मेति व्याहरन्तं हि वाचा विक्लवया मुनिम् ॥ ६४ वह मुंडी विष्णु के समक्ष उपस्थित हुआ । विष्णु ने कहा - "तुम्हारा नाम 'अरिहन्' ६४. शिवमहापुराण / रुद्रसंहिता / युद्धखण्ड / अध्याय ४ / श्लोक १-३ / पृ. ४३२ । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy