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________________ अ०४/प्र०१ जैनेतर साहित्य में दिगम्बरजैन मुनियों की चर्चा / ३०१ पाने के लिए ७० वर्ष का समय भी आवश्यक माना जाय तो उसका उत्पत्तिकाल ४०० ई० से पूर्व सिद्ध नहीं होता। डॉ० सागरमल जी ने भी पाँचवी शताब्दी ई० में ही उसकी उत्पत्ति मानी है। इससे सिद्ध है कि मुनि जी का यह कथन सर्वथा कपोलकल्पित है कि बोटिकों के लिए 'यापनीय' और 'क्षपणक' शब्दों का प्रयोग दक्षिण भारत में जाने पर हुआ था। चूँकि भारतीय साहित्य में 'क्षपणक' शब्द का प्रयोग यापनीयों की उत्पत्ति के बहुत पहले से होता आ रहा था, अतः सिद्ध है कि 'क्षपणक' शब्द यापनीयसाधु का पर्यायवाची नहीं है, अपितु दिगम्बर जैनमुनियों का ही नामान्तर है। इसलिए पाँचवी शती ई० के बहुत पूर्व रचे गये 'महाभारत', 'चाणक्यशतक', 'पंचतंत्र' आदि ग्रन्थों में जो क्षपणकों की चर्चा है, वह यापनीय साधुओं की नहीं, अपितु दिगम्बरजैन साधुओं की ही है। ___ ३. श्वेताम्बर मुनियों के समान यापनीय मुनि भी वन्दना किये जाने पर 'धर्मलाभ' का आशीर्वाद देते थे, दिगम्बरों के समान 'धर्मवृद्धि' का नहीं। 'षड्दर्शनसमुच्चय' के टीकाकार गुणरत्नसूरि ने कहा है-"गोप्यास्तु वन्द्यमाना धर्मलाभं भणन्ति। गोप्या यापनीया इत्यऽप्युच्यन्ते।" (पृष्ठ १६१)। किन्तु 'पंचतंत्र' की पूर्वोक्त कथा में प्रधान क्षपणक नापित को 'धर्मवृद्धि' का आशीर्वाद देते हैं। यह क्षपणक के दिगम्बर जैनमुनि होने का अकाट्य प्रमाण है। इन प्रमाणों से सिद्ध है कि 'क्षपणक' यापनीय साधु का नामान्तर नहीं है, अपितु दिगम्बरजैन साधु का पर्यायवाची है। अतः 'महाभारत' आदि वैदिकपरम्परा के ग्रन्थों में 'क्षपणक' शब्द से दिगम्बरजैन साधुओं का ही वर्णन किया गया है। - दिगम्बरजैन मुनि और आजीविक साधु में भेद यह भी नहीं कहा जा सकता कि 'महाभारत' आदि वैदिक परम्परा के ग्रन्थों में 'क्षपणक' शब्द का प्रयोग आजीविक साधुओं के लिए किया गया है। इस प्रकार के कथन की संभावना और अयुक्तिमत्ता को समझने के लिए श्वेताम्बरमुनि श्री कल्याणविजय जी के निम्नलिखित वक्तव्य का अनुशीलन करना आवश्यक है। वे लिखते हैं "नन्दीसूत्र के उल्लेखानुसार पूर्वश्रुत में आजीविक और त्रैराशिक मतानुसारी सूत्रपरिपाटी का वर्णन होने से डॉ० हार्नले का कथन है कि जिन आजीविक और त्रैराशिकों का नन्दी में उल्लेख है, वे गोशालक से बदल कर महावीर के पास गये हुए आजीविक थे। ये दोनों सम्प्रदाय निर्ग्रन्थसम्प्रदाय से पृथक् नहीं थे। उनका यह भी कथन है कि वर्तमान दिगम्बरजैन-संघ उन्हीं आजीविक और त्रैराशिकों का उत्तराधिकारी है। इसके प्रतिपादन में वे कहते हैं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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