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२९६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
अ०४/प्र०१ यथा-"क्षपणकाः स्त्रीमुक्तिनिषेधकं तीर्थकर भणन्ति। ५९ इसके अतिरिक्त क्षपणक और श्वेताम्बर-जिनकल्पिक साधु के स्वरूपभेद से भी उपर्युक्त तथ्य की पुष्टि होती है। स्वरूप की भिन्नता का बोध निम्नलिखित तथ्यों से होता है
१. वैदिकसाहित्य, संस्कृतसाहित्य तथा शब्दकोशों में क्षपणक को निर्वस्त्र एवं नग्न बतलाया गया है, जब कि श्वेताम्बर-जिनकल्पियों में वस्त्रलब्धियुक्त-जिनकल्पी लौकिक वस्त्र धारण न करते हुए भी नग्न नहीं दिखते थे, क्योंकि उनकी नग्नता लब्धिजन्य आवरण से ढंक जाती थी। तथा वस्त्रलब्धिरहित जिनकल्पियों के लिए नग्नता को छिपाने एवं शीतादि का निवारण करने हेतु एक, दो या तीन प्रावरण धारण करने की अनुमति दी गयी थी, क्योंकि श्वेताम्बरमत में नग्न दिखने को निर्लज्जता एवं असंयम का हेतु माना गया है।६०
२. संस्कृतसाहित्य में क्षपणक को मयूरपिच्छधारी कहा गया है-"कैश्चित् क्षपणकैरिव मयूरपिच्छधारिभिः।"६१ जब कि श्वेताम्बर-जिनकल्पी मुनि वस्त्रनिर्मित रजोहरण धारण करते थे।
३. श्वेताम्बर जिनकल्पी साधु मुखवस्त्रिका भी पहनते थे,६२ किन्तु वैदिकपरम्परा के ग्रन्थों एवं संस्कृतसाहित्य में कहीं भी क्षपणक को मुखवस्त्रिका धारण किये हुए नहीं बतलाया गया है, जब कि शिवमहापुराण में श्वेताम्बर (सवस्त्र) मुनि को तुण्डवस्त्रधारक (मुखवस्त्रिकाधारी) कहा गया है। (देखिये, अगला शीर्षक)।
४. वन्दना करने पर श्वेताम्बर साधु 'धर्मलाभ हो' यह आशीर्वाद देते हैं और दिगम्बर साधु 'धर्मवृद्धि हो' यह कहते हैं।६३ पञ्चतन्त्र की पूर्वोक्त कथा में प्रधान क्षपणक को नमस्कार करने पर नाई 'धर्मवृद्धि' का आशीर्वाद प्राप्त करता है।
५. श्वेताम्बरीय ग्रन्थों में कहा गया है कि जम्बूस्वामी के निर्वाण के पश्चात् (वीर निर्वाण के ६२ वर्ष बाद) जिनकल्प का विच्छेद हो गया। (विशे.भा./गा. २५९३)। अर्थात् पुरुषों में जिनकल्प धारण करने योग्य शक्तियों की उत्पत्ति बन्द हो गयी। अतः जिनकल्पी (लब्धिजन्य-देहावरणधारी या कटिवस्त्ररहित-वस्त्रपात्रधारी अथवा जिनलिंग५९. प्रवचनपरीक्षा-वृत्ति १/१/७१-७५ / पृ. ५०। ६०. प्रवचनपरीक्षा-वृत्ति १/२/३१/ पृ.९३-९४ तथा हेम.वृत्ति / विशे.भा. / गा. २५८४,२५९१ । ६१. कादम्बरी /पूर्वभाग/पृ.१०६। ६२. प्रवचनपरीक्षा / वृत्ति / १/२/३१/पृ.९४। ६३. "श्वेताम्बराणां रजोहरणमुखवस्त्रिकालोचादिलिङ्गं चोलपट्टकल्पादिको वेषः --- वन्द्यमाना
धर्मलाभमाचक्षेत। --- दिगम्बराः वन्द्यमाना धर्मवृद्धिं भणन्ति।" षड्दर्शनसमुच्चय / त.र.दी. वृत्ति / अधिकार ४ / पृ.१६०-१६१ ।
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