SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 488
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २९४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ०४/प्र०१ फिर वे दोनों परस्पर उसके राक्षस न होकर पिशाच या नारकी होने की शंका करती हैं। किन्तु अन्त में 'शान्ति' देखकर और सोचकर कहती है-"आः ज्ञातम्। महामोहप्रवर्तितोऽयं दिगम्बरसिद्धान्तः। तत्सर्वथा दूरे परिहरणीयमस्य दर्शनम्।" ५५ (अच्छा, अच्छा, समझ गई। यह तो 'महामोह' द्वारा प्रवर्तित दिगम्बरसिद्धान्त है। तब तो इसके दर्शन दूर से ही परित्याज्य हैं।) यह कहकर मुँह फेर लेती है। आगे चलकर उस क्षपणक (दिगम्बरजैन मुनि) का एक बौद्ध भिक्षु से वार्तालाप होता है। क्षपणक कहता है-"अरेरे भिक्षुक! इतस्तावत्। किमपि पृच्छामि।" (अरे भिक्षुक! इधर तो आओ। कुछ पूछना चाहता हूँ।)। भिक्षुक क्रुद्ध होकर कहता है-"आः पाप पिशाचाकृते! किमेवं प्रलपसि?" (अरे पापी, पिशाच के समान भयंकर सूरतवाले! क्या बकवास करता है?) क्षपणक उत्तर देता है-"अरे मुञ्च क्रोधम्। शास्त्रगतं पृच्छामि।" (अरे भाई क्रोध छोड़ो। मैं शास्त्र की बात पूछना चाहता हूँ।) भिक्षु व्यंग्य करता है-"अरे क्षपणक! शास्त्रकथामपि वेत्सि त्वम्?" ५६ (अरे क्षपणक! तू शास्त्रकथा भी जानता है?) आगे चलकर क्षपणक बौद्ध भिक्षु को उपदेश देता है-"तत् प्रियं ते विस्रब्धं भणामि। बुद्धानुशासनं परिहत्यार्हतानुशासनमेवानुसृत्य दिगम्बरमतमेव धारयतु भवान्।"५७ (मैं तुम्हें प्रिय और विश्वसनीय सलाह देता हूँ। तुम बौद्धधर्म को छोड़, आर्हतधर्म (जैनधर्म) को अपनाकर दिगम्बरमत ही धारण कर लो।) इसके बाद क्षपणक का एक कापालिक से वार्तालाप होता है। कापालिक कहता है-"अरे क्षपणक! धर्मं तावदस्माकमवधारय।"५८ (अरे क्षपणक! तुम मेरा धर्म ग्रहण कर लो।) यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि मयूरपिच्छीधारी दिगम्बरजैन मुनि को बौद्ध भिक्षु और कापालिक 'क्षपणक' शब्द से सम्बोधित करते हैं, जिससे सिद्ध है कि दिगम्बरजैन मुनि ही 'क्षपणक' कहलाते थे। इस प्रकार हम देखते हैं कि वैदिकयुग से लेकर ईसा की ग्यारहवीं शताब्दी तक के वैदिक एवं संस्कृत साहित्य में दिगम्बरजैन मुनियों के उल्लेख मिलते हैं। ५५. वही/ अंक ३/ पृ. ११६ । ५६. वही / अंक ३/ पृ. १२४ । ५७. वही / अंक ३/ पृ. १२६ । ५८. वही / अंक ३/ पृ. १३० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy