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अ०४ / प्र०१
जैनेतर साहित्य में दिगम्बरजैन मुनियों की चर्चा / २९३ अनुवाद-"क्रिया तो अलग-अलग मतों में भिन्न-भिन्न होती है। अतः भस्म लगायी जाय, जटा रखी जाय, दंड-कमण्डलु ग्रहण किया जाय अथवा रक्तपट धारण किये जायँ या दिगम्बरत्व का ही अवलम्बन किया जाय, इसमें क्या विरोध है?"
इस कथन में जयन्तभट्ट ने रक्तपटधारी बौद्धभिक्षुओं के साथ दिगम्बरधारी दिगम्बरजैन मुनियों का उल्लेख किया है।
२७ 'प्रबोधचन्द्रोदय' (१०६५ ई०) में विमुक्तवसन, क्षपणक, दिगम्बर
इस नाटक की रचना चन्देल राजा कीर्तिवर्मा के शासनकाल में कृष्णमिश्र नाम के दण्डी परिव्राजक ने की थी। कहते हैं कि सन् १०६५ ई० में यह उक्त राजा के सामने खेला भी गया था।५३ इसमें साम्प्रदायिक विद्वेषवश जैन और बौद्ध धर्मों को घृणितरूप में प्रस्तुत किया गया है। यह कल्पना की गई है कि इन धर्मों की सृष्टि 'महामोह' ने लोगों को वैदिकधर्म से च्युत करने के लिए की थी। इसमें 'महामोह', 'मिथ्यादृष्टि,' 'शान्ति,''श्रद्धा,' 'करुणा' आदि भावों का मानवीकरण (personification) किया गया है। तृतीय अङ्क में 'शान्ति' और 'करुणा' 'श्रद्धा' को ढूँढ़ती हैं। उन्हें सन्देह होता है कि 'श्रद्धा' 'महामोह' के भय से पाषण्डों (जैन और बौद्ध धर्मों) के घरों में छिप कर रह रही है, अर्थात् 'महामोह' के वशीभूत हो लोग जैन और बौद्ध धर्मों में श्रद्धा करने लगे हैं। अतः वे उसे वहीं ढूँढ़ने का विचार करती हैं। इतने में एक दिगम्बरजैन मुनि दिखाई देते हैं।
'करुणा' भयभीत होकर 'शान्ति' से कहती है-"सखि! राक्षसो राक्षसः।" 'शान्ति' पूछती है-"कोऽसौ राक्षसः?" (कहाँ है राक्षस?)
'करुणा' कहती है-"सखि! पश्य पश्य। य एष गलन्मलपिच्छिल-बीभत्सदुःप्रेक्ष्य-छविः, उल्लुञ्चित-चिकुर-विमुक्तवसनदुर्दर्शनः, शिखिशिखण्डपिच्छिकाहस्त इत एवाभिवर्तते।"५४ (सखि! देखो, देखो, यह है राक्षस, जिसका शरीर मैल से लिप्त होने के कारण घिनौना दिखाई दे रहा है, जो लुचितकेश और वस्त्ररहित (नग्न) होने से बीभत्स लगता है तथा हाथ में मयूरपंखों की पिच्छिका लिए हुए है। वह इसी तरफ आ रहा है।)
५३. रामधारीसिंह दिनकर : संस्कृति के चार अध्याय / पृ.२१० । ५४. प्रबोधचन्द्रोदय / अंक ३/ पृ.११५ ।
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