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२९२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
अ०४/प्र०१ जटिनो मुण्डिनश्चैव नग्ना नाना प्रकारिणः।।
सम्पूज्याः शिववन्नित्यं मनसा कर्मणा गिरा॥ १/३४/३१॥ अनुवाद-"जो नाना प्रकार के जटाधारी या मुण्डी नग्न साधु हैं, वे शिव के समान मन, वचन और कर्म से पूजनीय हैं।"
इस उक्ति के द्वारा लिङ्गपुराण में दिगम्बरजैन मुनियों के प्रति भी आदरभाव सूचित किया गया है।
ब्रह्माण्डपुराण के द्वितीय (अनुषङ्ग) पाद के अन्तर्गत २७वें अध्याय में भी उपर्युक्त भाववाले दो श्लोक मिलते हैं
नग्ना एव हि जायन्ते देवता मुनयस्तथा। ये चान्ये मानवा लोके सर्वे जायन्त्यवाससः॥ २/२७ / ११८॥ इन्द्रियैरजितैनग्ना दुकूलेनापि संवृताः।
तैरेव संवृतो गुप्तो न वस्त्रं कारणं स्मृतम्॥ २/२७ /११९॥ इन श्लोकों में सभी देव-मानवों को जन्म से नग्न ही बतलाया गया है और मुनियों को भी प्रमुखतः नाग्न्यलिङ्गवाला ही कहा गया है तथा यह मनौवैज्ञानिक तथ्य उद्घाटित किया गया है कि इन्द्रियों का संवरण ही वास्तविक आवरण है।
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न्यायकुसुमाञ्जलि (९८४ ई०) में निरावरण, दिगम्बर इस प्रसिद्ध न्यायग्रंथ के कर्ता उदयनाचार्य ९८४ ई० में हुए थे। इस ग्रन्थ में पृष्ठ १६ पर उन्होंने निरावरण जैन मुनियों को 'दिगम्बर' शब्द से अभिहित किया है-"निरावरणा इति दिगम्बराः।" ५१
२६ न्यायमञ्जरी (१००० ई०) में दिगम्बर इस ग्रन्थ के लेखक जयन्तभट्ट का काल १००० ई० के लगभग है। वे पृष्ठ १६७ पर लिखते हैं
"क्रिया तु विचित्रा प्रत्यागमं भवतु नाम। भस्मजटापरिग्रहो दण्डकमण्डलुग्रहणं वा रक्तपटधारणं वा दिगम्बरतां वावलम्ब्यतां कोऽत्र विरोधः।"५२
५१. पं० अजितकुमार शास्त्री : श्वेताम्बरमत-समीक्षा / पृ. १६८। ५२. वही / पृ. १६८।
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