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अ०४ / प्र० १
जैनेतर साहित्य में दिगम्बरजैन मुनियों की चर्चा / २९१ शैवमाप परं पदम् ।
न्यवेदयत् ॥ १/४७/२३॥
निराशस्त्यक्तसन्देहः
हिमाद्रेर्दक्षिणं वर्षं भारताय
तस्मात्तु भारतं वर्षं तस्य भरतस्यात्मजो विद्वान्
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नाम्ना विदुर्बुधाः ।
सुमतिर्नामधार्मिकः ॥ १/४७/२४॥
बभूव तस्मिंस्तद्राज्यं भरतः सन्यवेशयत् । पुत्रसङ्क्रामितश्रीको वनं राजा विवेश सः ॥ १/४७/२५ ॥
अनुवाद - " हिमालय से चिह्नित इस देश के महाराज नाभि के वंश का वर्णन करता हूँ, उसे सुनो। महामति नाभि नें मरुदेवी से 'ऋषभ' नामक पुत्र को उत्पन्न किया, जो राजाओं में श्रेष्ठ और समस्त क्षत्रियों में पूजित थे । ऋषभ से सौ पुत्रों में ज्येष्ठ भरत का जन्म हुआ । पुत्रवत्सल ऋषभ ने भरत का राज्याभिषेक किया और ज्ञानवैराग्य का आश्रय लेकर, इन्द्रियरूपी महाविषधरों पर विजय प्राप्त कर, आत्मा को ही परमात्मा या ईश्वर मानकर नग्न और जटाधारी हो, निराहार रहने लगे और इस प्रकार चीरिजनित ( ज्ञानरूपी नेत्रों पर पड़े हुए परदे से उत्पन्न) अन्धकार से मुक्त एवं इच्छातीत और सन्देहातीत होकर मोक्षपद प्राप्त कर लिया । यतः उन्होंने हिमालय के दक्षिण में विद्यमान वर्ष (देश) भरत को दे दिया था, इसलिए भरत के नाम पर उसका नाम 'भारतवर्ष' पड़ा। भरत के सुमति नाम का धार्मिक पुत्र हुआ। उसे उन्होंने अपना राज्य सौंप दिया और वन को चले गये।"
लिङ्गपुराण के इन श्लोकों में भगवान् ऋषभदेव को स्पष्ट रूप से 'नग्न' बतलाया गया है, जिससे सिद्ध होता है कि जैनेतर भारतीय सम्प्रदायों में जैन तीर्थंकर अचेलतीर्थ के प्रवर्तक के रूप में ही प्रसिद्ध थे । इससे दिगम्बरों की इस मान्यता की पुष्टि होती है कि भगवान् महावीर ने सर्वथा अचेल निर्ग्रन्थसंघ का ही प्रवर्तन किया था । लिङ्गपुराण (भाग १ / अध्याय ३४) में नग्नता को लेकर एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण श्लोक कहा गया है
'संवृतः । तैरेव संवृतो गुप्तो न वस्त्रं कारणं स्मृतम् ॥ १ / ३४ / १४ ॥
इन्द्रियैरजितैर्नग्नो दुकूलेनापि
अनुवाद - " जिसने इन्द्रियों पर विजय प्राप्त नहीं की है, वह वस्त्रों से आच्छादित होने पर भी नग्न (निर्लज्ज) है, किन्तु जिसने इन्द्रियों को वश में कर लिया है, वह नग्न रहते हुए भी अनग्न ( लज्जावान् ) है। अर्थात् वस्त्रधारण करने से कोई सलज्ज नहीं बनता और वस्त्रत्याग देने से निर्लज्ज नहीं होता।"
एक अन्य श्लोक में कहा गया है
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