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२९० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
अ०४/प्र०१ २३
ब्रह्माण्डपुराण में नग्न, निर्ग्रन्थ ब्रह्माण्डपुराण (उपोद्घातपाद ३/ अध्याय १४) में भी कहा गया है कि श्राद्धकर्म में नग्नादि के दर्शन नहीं करना चाहिए। नग्नादि में वृद्धश्रावकों, निर्ग्रन्थों, बौद्धों, जीवकों और कार्पटों की गणना की गई है
नग्नादयो न पश्येयुः श्राद्धकर्म व्यवस्थितम्। गच्छन्त्येतैस्तु दृष्टानि न पितूंश्च पितामहान्॥ ३/१४/३४॥ सर्वेषामेव भूतानां त्रयी संवरणं स्मृतम्॥ ३/१४/३५॥ ता ये त्यजन्ति सम्मोहात्ते वै नग्नादयो जनाः॥ ३/१४/३६॥ वृद्धश्रावकनिर्ग्रन्थाः शाक्या जीवककार्पटाः॥३/१४/३९॥
ये धर्म नानुवर्तन्ते ते वै नग्नादयो जनाः॥ ३/१४/४०॥ इन श्लोकों में वेदत्रयीरूप आवरण का परित्याग कर देनेवालों को 'नग्नादि' कहा गया है। ध्यान देने योग्य है कि यहाँ सब के लिए 'नग्नाः' शब्द का प्रयोग न कर 'नग्नादयः' का प्रयोग किया गया है। यह स्पष्ट करता है कि 'नग्न' शब्द से 'निर्ग्रन्थ' संकेतित किये गये हैं और 'आदयः' पद से वृद्धश्रावक, शाक्य (बौद्ध) आदि।
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लिङ्गपुराण में नग्न ऋषभ ___ इस पुराण के प्रथमभाग के अन्तर्गत भारतवर्षकथन नामक सैंतालीसवें अध्याय में भारतवर्ष नाम की उत्पत्ति का हेतु बतलाते हुए कहा गया है
नाभेनिसर्ग वक्ष्यामि हिमाङ्केस्मिन्निबोधत। नाभिस्त्वजनयत्पुत्रं मरुदेव्यां महामतिः॥ १/४७/१९॥ ऋषभं पार्थिव श्रेष्ठं सर्वक्षत्रस्य पूजितम्। ऋषभाद् भारतो जज्ञे वीरः पुत्रशताग्रजः॥ १/४७/२०॥ सोऽभिषिच्याथ ऋषभो भरतं पुत्रवत्सलः। ज्ञानवैराग्यमाश्रित्य जित्वेन्द्रियमहोरगान्॥ १/४७/२१॥ सर्वात्ममनात्मनि स्थाप्य परमात्मानमीश्वरम्।
नग्नो जटी निराहारो चीरीध्वान्तगतो हि सः॥ १/४७/२२ ॥५० ५०. 'चीरिध्वान्तगतः' होना चाहिए। 'चीरि' का अर्थ है = नेत्रों पर पड़ा हुआ आवरण (वामन
शिवराम आप्टे : संस्कृत-हिन्दी-कोश)।
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