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________________ अ०४/प्र०१ जैनेतर साहित्य में दिगम्बरजैन मुनियों की चर्चा / २८९ कूर्मपुराण (पूर्वार्ध/अध्याय ३०) के निम्नलिखित श्लोक में भी निर्ग्रन्थों का उल्लेख है। यह मत्स्यपुराण के पूर्वोक्त श्लोक से साम्य रखता है काषायिणोऽथ निर्ग्रन्थास्तथा कापालिकाश्च ये। वेदविक्रयिणाश्चान्ये तीर्थविक्रयिणः परे॥ १/३०/१६॥ अनुवाद-"(कलियुग उपस्थित होने पर) कोई काषायवस्त्रधारी (बौद्ध) साधु होगा, कोई निर्ग्रन्थ (नग्न) तथा कोई कापालिक, कोई वेदों का विक्रय करेगा और कोई तीर्थों का।" टीकाकार प्रभाचन्द्र ने इसका अर्थ कौपीन (लँगोटी) मात्र धारण करनेवाला किया है तथा उसे 'आर्य' शब्द से अभिहित किया है-"चेलखण्डधरः कौपीनमात्रवस्त्रखण्डधारकः आर्यलिङ्गधारीत्यर्थः।" (र.क.ग्रा./ कारिका १४७)। पं० आशाधर जी ने भी उसे 'आर्य कहा है। (सा.ध./७/४८)। सर्वप्रथम ७वीं शती ई० के रविष्णकृत पद्मपुराण (१००/३२-४१) में कौपीनअंशुकधारी उत्कृष्ट श्रावक के लिए 'क्षुल्लक' शब्द का प्रयोग किया गया है। तत्पश्चात् १०वीं शती ई० के हरिषेणकृत 'बृहत्कथाकोश' में भी 'क्षुल्लक' शब्द व्यवहत हुआ है। (७३. यशोधर-चन्द्रमती कथानक / श्लोक २३७-२३८)। किन्तु १२वीं शती ई० के आचार्य वसुनन्दी ने अपने श्रावकाचार (गाथा ३०१-३१०) में क्षुल्लक-ऐलक शब्दों का प्रयोग न कर एकादशप्रतिमाधारी उत्कृष्ट श्रावकों के प्रथमोत्कृष्ट और द्वितीयोत्कृष्ट, ये दो भेद किए हैं। सर्वप्रथम १६वीं शती ई० में पं० राजमल्ल जी ने अपनी लाटीसंहिता (६/५५) में द्वितीयोत्कृष्ट श्रावक के लिए एलक शब्द का प्रयोग किया है-"उत्कृष्टः श्रावको द्वधा क्षुल्लकश्चैल-कस्तथा।" इससे यह निर्णय युक्तिसंगत प्रतीत होता है कि 'चेलखण्डधरः' के साथ लोक में 'खण्डचेलकः' शब्द भी प्रचलित हुआ और प्राकृत के नियमानुसार स्वरमध्यग 'च' का लोप होने पर 'खंडएलक' शब्द का विकास हुआ। पश्चात् प्रयत्नलाघव की प्रवृत्तिवश कवल 'एलक' शब्द का प्रयोग होने लगा। संस्कृत में शिव और परशुराम के अर्थ में 'खण्डपरशुः' शब्द उपलब्ध होता है। (आप्टेकृत संस्कृत-हिन्दी कोश)। 'खण्डचेलकः' ऐसा ही शब्द है। अथवा आर्य शब्द आर्यक > आरक > एरक > एलक, इस तरह 'एलक' रूप में विकसित हुआ है। एलक' शब्द का ऐलक'-रूप में प्रचलन सन्धिविच्छेद करनेवालों की कृपा से हुआ है। 'लाटीसंहिता' में 'एलक' शब्द का प्रयोग केवल तीन स्थानों में सन्धिपूर्वक हुआ है, यथा-क्षुल्लकश्चैलकः (६/५५) तत्रैलकः (६/५६), चैलकस्य (६/ ५८)। यहाँ तीनों जगह च+एलकः, तत्र+एलकः, च+एलकः इस प्रकार सन्धिविग्रह किया जाना चाहिए, किन्तु च+ऐलकः, तत्र+ऐलकः ऐसा विच्छेद कर लिया गया, जो समीचीन नहीं है। उच्चारण भी ‘एलक' ही किया जाता है, 'ऐलक' (अइलक) नहीं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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