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२८८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
अ०४/प्र०१ अन्य पाषण्ड, जिसके श्राद्ध में हविभक्षण करते हैं, उसके लिए किया गया श्राद्ध इस लोक और परलोक में फलप्रद नहीं होता।"
प्राकृतशब्दानुशासन /८/१/१७७) इस नियम के अनुसार 'अचेलक' के 'च' का लोप हो जाने पर 'अ' शेष रहा और 'अएलक' इस स्थिति में वृद्धिसन्धि (अ+ए = ऐ) होने पर 'ऐलक' पद बन गया। नङ्समास में 'अ' (नञ्) से 'ईषद्' अर्थ लेने पर 'ऐलक' शब्द अल्पवस्त्रधारी (केवल एक कौपीनधारी) उत्कृष्ट (एकादशप्रतिमावलम्बी) श्रावक का अर्थ देता है। (देखिये, वसुनन्दि-श्रावकाचार/भारतीय ज्ञानपीठ काशी/१९५२ ई० / प्रस्तावना/पृ०६३)। क्षुल्लक श्री जिनेन्द्र वर्णी ने भी 'जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश' (भाग १/पृ.४६८-६९) में पण्डित जी के इस मत का उल्लेख कर इसे मान्यता प्रदान की है। किन्तु, पण्डित जी का यह मत समीचीन नहीं है। उपर्युक्त नियम के अनुसार 'च' का लोप होने से अवशिष्ट 'ए' उद्वत्त स्वर है। अतः 'स्वरस्योवृत्ते' (हैम प्राकृतशब्दानुशासन /८/१/८) सूत्र के अनुसार पूर्ववर्ती 'अ' के साथ उसकी सन्धि नहीं हो सकती, जैसे निशाचरः निसाअरो, रजनीचर: रयणीअरो। अतः प्राकृत में 'ऐलक' शब्द नहीं बन सकता। यदि सन्धि मानी भी जाय तो भी प्राकृत में 'ऐ', 'औ' स्वरों का अस्तित्व न होने से 'ऐलक' शब्द सिद्ध होना असंभव है। प्राकृत ग्रन्थों में संस्कृत 'अचेलक' का 'अएलक' या 'ऐलक' रूप मिलता भी नहीं है, सर्वत्र 'च' ज्यों का त्यों उपलब्ध होता है, यथा-'अचेलमण्हाणं' (प्र.सा./गा.३/८), 'आचेलकमण्हाणं' (मूला. / गा.३), 'आचेलक्कुइसिय' (भ.आ./ गा. ४२३), 'अचेलगो य जो धम्मो' (उत्त. सूत्र / २३ / २९)। अतः 'ऐलक' शब्द न तो प्राकृतभाषा का शब्द है, न ही संस्कृत का। संस्कृत में 'एलक' शब्द उपलब्ध होता है, किन्तु उसका अर्थ एडक (मेढ़ा) है (आप्टेकृत संस्कृत-हिन्दी-कोश)।
इसके अतिरिक्त अल्पचेलक-अर्थ में 'अचेलक' शब्द का प्रयोग तो श्वेताम्बरआगमों में भी नहीं हुआ है, दिगम्बर-आगमों में होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। उत्तरवर्ती श्वेताम्बर वृत्तिकारों ने अवश्य मुनियों की सचेलता को आगमोक्त सिद्ध करने के लिए 'अचेलक' शब्द को अल्पचेलक-अर्थ में प्रयुक्त बतलाने की चेष्टा की है, किन्तु वह असमीचीन है। (देखिये, अध्याय ३/ प्रकरण १/शीर्षक ६)। यदि दिगम्बरमत में भी 'अचेलक' शब्द को 'अल्पचेलक' अर्थ का प्रतिपादक माना जाय, तो मनि के लिए विहित 'आचेलक्य' मलगण से 'अल्पचेलत्व' मूलगुण अर्थ प्रतिपादित होने से कोई तर्क नहीं रोक सकता, जिससे दिगम्बरजैन-मत में भी सवस्त्रमुक्ति की मान्यता का सिद्ध होना अनिवार्य है। अतः 'अचेलक' शब्द को अल्पचेलक अर्थ का प्रतिपादक किसी भी तरह नहीं माना जा सकता।
प्राचीन ग्रन्थों में ग्यारहवीं प्रतिमा के क्षुल्लक-ऐलक ये दो भेद भी नहीं मिलते। आचार्य कुन्दकुन्द ने उत्कृष्ट श्रावकों के लिंग को उत्कृष्ट लिंग कहा है, किन्तु क्षुल्लक-ऐलक शब्दों का प्रयोग नहीं किया (सुत्तपाहुड/गा.२१)। स्वामी समन्तभद्र ने भी क्षुल्लक-ऐलक भेद किये बिना ग्यारहवीं-प्रतिमाधारी श्रावक को चेलखण्डधरः कहा है और
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