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________________ अ० ४ / प्र० १ जैनेतर साहित्य में दिगम्बरजैन मुनियों की चर्चा / २८७ न दानाध्ययनं विप्रास्तस्मिञ्छासति पार्थिवे । एवं धर्मप्रलोपो ऽभून्महत्पापं प्रवर्तितम् ॥ २/२/३८/५ ॥ वार्यमाणस्त्वन्यथा कुरुते अङ्गेन भृशम् । न ननाम पितुः पादौ मातुश्चैव दुरात्मवान् ॥ २/२/३८/६॥ यह पद्ममहापुराण छठी शती ई० के बाद रचा गया है और इसमें दिगम्बरजैन मुनि द्वारा हजारों वर्ष पूर्व हुए स्वायंभुव मनु के वंशज तथा राजा अंग के पुत्र वेन को जैनधर्म में दीक्षित किये जाने का वर्णन है। इससे सिद्ध है वैदिक पुराणकार दिगम्बरजैनधर्म को बहुत प्राचीनकाल से चला आया हुआ मानते थे । यदि उसका प्रवर्तन विक्रम की छठी शताब्दी में हुआ होता और आचार्य कुन्दकुन्द ने किया होता, तो छठी शताब्दी ई० के बाद के वैदिक पुराणकार उसे इतने प्राचीन होने का श्रेय न देते और छठी शताब्दी के बाद के किसी हिन्दू राजा को कुन्दकुन्द नाम के पुरुष द्वारा जैनधर्म में दीक्षित किये जाने की कथा वर्णित करते । यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि राजा वेन को जिस मुनि के द्वारा जैनधर्म की दीक्षा दिये जाने की बात कही गई है, उसे नग्न, मयूरपिच्छीधारी और हाथ में नारिकेलमय कमण्डलु लिये हुए बतलाया गया है तथा उसे ' क्षपणक' एवं 'निर्ग्रन्थ' शब्दों सम्बोधित किया गया है, इससे सुनिश्चित होता है कि वह श्वेताम्बरमत का जिनकल्पी साधु नहीं था, अपितु दिगम्बर जैन साधु ही था और वैदिक मतानुयायी समाज में दिगम्बरजैन मुनि ही 'क्षपणक' एवं 'निर्ग्रन्थ' नामों से प्रसिद्ध थे । Jain Education International २२ कूर्मपुराण ( ७०० ई० ) में निर्ग्रन्थ कूर्मपुराण ई० सन् ७०० में रचित माना गया है। इसमें दो भाग हैं : पूर्वार्ध और उत्तरार्ध। द्वितीयभाग अर्थात् उत्तरार्ध के इक्कीस वें अध्याय में कहा गया हैवृद्धश्रावकनिर्ग्रन्थाः पञ्चरात्रविदो जनाः । कापालिकाः पाशुपताः पाषण्डा ये च तद्विधाः ॥ २/२१/३२ ॥ यस्याश्नन्ति हवींष्येते दुरात्मानस्तु तामसाः । न तस्य तद्भवेच्छ्राद्धं प्रेत्य चेह फलप्रदम् ॥ २/२१/३३॥ ४९ अनुवाद - " वृद्धश्रावक (दिगम्बरजैन-धर्मावलम्बी एलक - क्षुल्लक), निर्ग्रन्थ (दिगम्बर जैन मुनि), पञ्चरात्र - ग्रंथों के पाठी, कापालिक, पाशुपत तथा इसी प्रकार के ४९. 'एलक' शब्द शुद्ध है, 'ऐलक' नहीं। पं० हीरालाल जी जैन सिद्धान्तशास्त्री ने ऐलक शब्द को 'अचेलक' का प्राकृतरूप माना है । वे कहते हैं कि 'कगचजतदपयवां प्रायो लुक्' (हैम For Personal & Private Use Only wwww.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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