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२८६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
अर्हन्तो देवता यत्र निर्ग्रन्थो दृश्यते गुरुः । दया चैव परो धर्मस्तत्र
दर्शनेऽस्मिन्न
सन्देह
आचारान्प्रवदाम्यहम् ।
यजनं याजनं नास्ति वेदाध्ययनमेव च ॥ २/२/३७/१८॥
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नास्ति सन्ध्या तपो दानं स्वधास्वाहाविवर्जितम् । हव्यकव्यादिकं नास्ति नैव यज्ञादिका क्रिया ॥ २/२/३७/१९॥
पितॄणां तर्पणं नास्ति नातिथिर्वैश्वदेवकम् । अर्हतो ध्यानमुत्तमम् ॥ २/२/३७/२० ॥
क्षपणस्य वरा पूजा
अयं धर्म समाचारो जैनमार्गे एतत्ते सर्वमाख्यातं निजधर्मस्य
मोक्षः प्रदृश्यते ॥ २/२/३७/१७॥
अनुवाद - " हम अर्हन्त को देवता और निर्ग्रन्थ मुनि को गुरु मानते हैं,' अहिंसा हमारा परमधर्म है और मोक्ष की प्राप्ति परमलक्ष्य । हमारे धर्म में यजन - याजन नहीं होता, न ही वेदों का अध्ययन । न हम सन्ध्या करते हैं, न ( ब्राह्मणों जैसा) तप और दान । हम स्वाहापूर्वक हवि-प्रदान भी नहीं करते और स्वधापूर्वक पितरों का तर्पण नहीं करते। अतिथियों का स्वागत-सत्कार भी इसमें आवश्यक नहीं होता, न विश्वेदेवों को बलि प्रदान की जाती है। हमारे धर्म में क्षपणक ( दिगम्बर मुनि) की पूजा और अर्हन्त का ध्यान ही श्रेष्ठ माना जाता है। ये ही हमारे धर्म के लक्षण हैं।"
एवं सम्बोधितो वेनः पुरुषेण तेन जैनेन
अ०४ / प्र० १
उस महापापी जैन पुरुष के द्वारा इस प्रकार सम्बोधित किये जाने पर राजा वेन ने उसके चरणों में नमस्कार कर वैदिकधर्म का परित्याग कर दिया और जैनधर्म स्वीकार कर लिया। अपने पिता अंग के रोकने पर भी वह नहीं माना। उसके शासन में सम्पूर्ण प्रजा वैदिकधर्म को छोड़कर पापमय हो गई—
नमस्कृत्य ततः पादौ वेदधर्मं परित्यज्य
प्रदृश्यते ।
लक्षणम् ॥ २/२/३७/२१॥
पापभावं गतः किल ।
महापापेन मोहितः ॥ २/२/३८/१॥ तस्यैव च दुरात्मनः । सत्यधर्मादिकां क्रियाम् ॥ २/२/३८ / २॥
सुयज्ञानां निवृत्तिः स्याद्वेदानां हि तथैव च ।
शास्त्र सर्वपापमयो लोकः नैव यागाश्च
वेदाश्च
धर्मस्तदा नैव प्रवर्तितः ॥ २/२/३८/३॥
सञ्जातस्तस्य शासनात् ।
धर्मशास्त्रार्थमुत्तमम् ॥ २ / २ / ३८/४॥
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