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२८४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ वेन स्वायम्भुव मनु की वंशपरम्परा में 'अंग' का पुत्र
अ०४ / प्र०१ और 'पृथु' (वैन्य) का पिता
था।७
राजा वेन चाक्षुष (छठे) मन्वन्तर और वैवस्वत (सातवें) मन्वन्तर के सन्धिकाल में हुआ था, जैसा कि निम्नलिखित वाक्यों में कहा गया है-"चाक्षुष-वैवस्वतयोर्मन्वन्तरयोः सन्धौ लोकोऽयं प्रजापालविरहेण भृशमसीदत्। तत्र ऋषयः समेत्य मन्त्रयाञ्चक्रिरे धर्मज्ञं जयपण्डितं वेनमुपलम्य तं पृथ्वीराज्येऽभिषिषिचुः। स च धर्मतः प्रजाः स्वाः प्रजा इव चिरं शशास यावदस्य सुशङ्खर्षेः शापान्मतविपर्ययो नाभूत्।"४८
अनुवाद-"चाक्षुष और वैवस्वत-मन्वन्तरों के सन्धिकाल में प्रजापालक के अभाव में प्रजा बड़ी दुःखी थी। तब ऋषियों ने मिलकर सलाह की और धर्मज्ञ, जयपण्डित वेन को पृथ्वी के राज्य पर अभिषिक्त कर दिया। उसने प्रजा का धर्मपूर्वक अपनी ही सन्तान के समान चिरकाल तक पालन किया, जब तक कि सुशंख ऋषि के शाप से उसकी बुद्धि विपरीत नहीं हो गयी।"
मनुओं की संख्या १४ बतलायी गयी है। एक मनु का काल मनुष्यों के ४३ लाख, बीस हजार (४३,२०,०००) वर्षों का होता है। इस समय सातवाँ मन्वन्तर (सातवें मनु वैवस्वत का काल) चल रहा है। इससे सिद्ध होता है क राजा वेन आज से कई हजार वर्ष पहले हुआ था।
विष्णुपुराण में कहा गया है कि "मृत्यु की 'सुनीथा' नाम को जो प्रथम पुत्री थी, वह 'अंग' के साथ व्याही गयी थी। उसी से वेन का जन्म हुआ। वह 'मृत्यु' की कन्या का पुत्र अपने मातामह (नाना) के दोष से स्वभाव से ही दुष्टप्रकृति का था। ऋषियों द्वारा राज पद पर अभिषिक्त किये जाते ही उसने घोषणा कर दी कि कोई भी मनुष्य न यज्ञ करे, न दान, न हवन। मेरे अलावा यज्ञ का भोक्ता और कौन हो सकता है? मैं ही यज्ञपति प्रभु हूँ।" (विष्णुपुराण / अंश १/ अध्याय १३ / श्लोक ११-१४)।
___ ऋषियों ने उसे बहुत समझाया, किन्तु जब वह नहीं माना, तब कुद्ध होकर उन्होंने मन्त्रपूत कुशों से उसका वध कर दिया। (वहीं / अंश १ / अध्याय १३ / श्लोक २६-२९)।
'श्रीमद्भागवतपुराण' (स्कन्ध ४ / अध्याय १४ / श्लोक १-४६) एवं 'महाभारत' (शान्तिपर्व / अध्याय ५९ / श्लोक ९९-१००) में भी राजा वेन का ऐसा ही चरित्र और ४७. वही / अंश १ / अध्याय १३ / श्लोक ११, ३८-३९ । ४८. पद्ममहापुराण / भाग १-सृष्टिखण्ड / भूमिका : प्रो. डॉ. चारुदेव शास्त्री / पृ. १६ ।
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