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अ०४/प्र०१
जैनेतर साहित्य में दिगम्बरजैन मुनियों की चर्चा / २८३
भर्तृहरि-वैराग्यशतक (७०० ई०) में पाणिपात्र, दिगम्बर
भर्तृहरि ईसा के सातवें शतक के कवि थे। उनके शतकत्रय बहुत प्रसिद्ध हैं: नीतिशतक, शृंगारशतक और वैराग्यशतक। यद्यपि वे शिवभक्त थे, तथापि उन्होंने वैराग्यशतक में स्वयं शम्भु को सम्बोधित करते हुए 'पाणिपात्र दिगम्बर मुनि' बनने की भावना व्यक्त की है
एकाकी निःस्पृहः शान्तः पाणिपात्रो दिगम्बरः।
कदा शम्भो! भविष्यामि कर्मनिर्मूलनक्षमः॥ ८७॥ वैराग्यशतक के एक अन्य श्लोक में वे कहते हैं
पाणिः पात्रं पवित्रं भ्रमणपरिगतं भैक्षमक्षय्यमन्नं, विस्तीर्णं वस्त्रमाशादशकमचपलं तल्पमस्वल्पमुर्वी। येषां निःसङ्गताङ्गीकरण-परिणतस्वात्मसन्तोषिणस्ते,
धन्याः संन्यस्तदैन्यव्यतिकरनिकराः कर्म निर्मूलयन्ति॥ ९६॥ अनुवाद-"वे धन्य हैं, जिनका हाथ ही पवित्र भिक्षापात्र है, भ्रमण द्वारा प्राप्त भिक्षा ही जिनका अक्षय भोजन है, विस्तीर्ण दशों दिशाएँ ही जिनका अचंचल वस्त्र है, विशाल पृथ्वी ही जिनकी शय्या है, जो अनासक्त हो जाने से स्वात्म सन्तुष्ट रहते हैं तथा दैन्यभाव का त्यागकर कर्मों का विनाश करते हैं।"
भर्तृहरि का दिगम्बरजैन मुनियों के प्रति यह बहुमान सूचित करता है कि उनके समय में उत्तरभारत में दिगम्बर जैन मुनि बड़ी संख्या में विहार करते थे और उनकी चर्या बहुत प्रभावशाली थी।
२१ (वैदिक) पद्ममहापुराण में निर्ग्रन्थ, क्षपण (वैदिक) पद्ममहापुराण में राजा वेन का उपाख्यान आया है। वह चौदह मनुओं में से 'स्वायम्भुव' नामक प्रथम मनु का वंशज था। विष्णुपुराण में उसकी वंश-परम्परा इस प्रकार बतलायी गयी है : ब्रह्मा की आत्मा से उत्पन्न स्वायम्भुव मनु > उत्तानपाद > ध्रुव > शिष्टि > रिपु > चाक्षुष > मनु (छठे मनु , जो चाक्षुष के पुत्र होने के कारण 'चाक्षुषमनु' कहलाये) > कुरु > अङ्ग > वेन > पृथु। इस तरह राजा
४६. विष्णुपुराण / अंश १ / अध्याय ७/श्लोक १६-१९, अंश १/ अध्याय ११/ श्लोक १-३, अंश
१/ अध्याय १३/ श्लोक १-९।
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