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________________ २८० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ०४ / प्र०१ कुर्वन् यत्प्राप्तं तेनैव निर्लोलुपः --- सर्वदानुन्मत्तो बालोन्मत्त-पिशाचवदेकाकी सञ्चरन्नसम्भाषणपरः स्वरूपध्यानेन निरालम्बमवलम्ब्य स्वात्मनिष्ठानुकूलेन सर्वं विस्मृत्य तुरीयातीतावधूतवेषणाद्वैतनिष्ठापरः प्रणवात्मकत्वेन देहत्यागं करोति यः सोऽवधूतः। स कृतकृत्यो भवतीत्युपनिषत्।" (ईशाद्यष्टो./पृ. ४१०)। अनुवाद-"सबसे पहले कुटीचक साधु बहूदक अवस्था को प्राप्त करे, फिर बहूदक हंसावस्था का अवलम्बन करे, तदनन्तर हंस, परमहंस अवस्था में पहुँचे। परमहंस होकर स्वरूपानुसन्धान द्वारा सबको प्रपंच समझकर दण्ड, कमंडल, कटिसत्र. कौपीन और आच्छादन, इन सब को स्वविधि के अनुसार जल में विसर्जित कर दिगम्बर हो जाय। विवर्ण जीर्ण वल्कल तथा अजिन के परिग्रह का भी त्याग कर दे। तदनन्तर क्षौर, अभ्यङ्ग, (तेलमालिश), स्नान, ऊर्ध्वपुण्ड्र आदि को त्याग दे तथा शीत-उष्ण, सुख-दुःख, मान-अपमान को जीतकर वासनात्रयपूर्वक, निन्दा, अनिन्दा, गर्व, मत्सर, दम्भ, दर्प, द्वेष, काम, क्रोध, लोभ, मोह, हर्ष, अमर्ष, असूया, आत्मसंरक्षणादि को दग्ध कर अपने शरीर को शव के समान समझता हुआ लाभ-अलाभ में समभाव रखते हुए गोचरी द्वारा प्राणधारण करे।---सदा अनुन्मत्त रहे, किन्तु , उन्मत्त एवं पिशाच के समान अकेला भ्रमण करे और किसी से बातचीत न करते हुए स्वरूप में लीन होकर सब को भूल जाय। इस प्रकार तुरीयातीत और अवधूत का वेष धारणकर अद्वैत में निष्ठा रखते हुए, ओंकारध्वनि के साथ जो देहत्याग करता है वह 'अवधूत' कहलाता है। वही कृतकृत्य होता है, यह उपनिषत् (आगमवचन) है।" इस उपनिषत् से स्पष्ट है कि परमहंस को भी अन्ततः कौपीन का परित्याग करना पड़ता है और जब वह कौपीन त्यागकर दिगम्बर हो जाता है, तभी तुरीयातीत एवं अवधूत अवस्थाओं को प्राप्त होकर मोक्ष का पात्र बनता है। इस प्रकार वैदिक संन्यासमार्ग में भी सवस्त्रमुक्ति की वैकल्पिक व्यवस्था नहीं है। यह दिगम्बरजैनमुनिधर्म के घनिष्ठ प्रभाव का सूचक है। इतना ही नहीं, इस औपनिषदिक संन्यासमार्ग में जो शीतोष्ण सुख-दुःखादि परीषहों को जीतने, कामक्रोधादिकषायों के विसर्जन, अस्नान,४० भूतलशयन,४१ करपात्र या पापात्र में आहारग्रहण, एकभुक्ति४२ शुक्लध्यानपरायणता, शुभाशुभकर्म-निर्मूलन तथा संन्यासपूर्वक (सल्लेखनापूर्वक) देहत्याग३ के सिद्धान्त हैं, वे भी दिगम्बर-मुनि-चर्या से ही अनुकृत हैं। ४०. "त्रिषवणस्नानं कुटीचकस्य, बहूदकस्य द्विवारं, हंसस्यैकवारं, परमहंसस्य मानसस्नानं तुरीया तीतस्य भस्मस्नानम् अवधूतस्य वायव्यस्नानम्।" नारदपरिव्राजकोपनिषद् । ईशाद्यष्टो./ पृष्ठ २७८ । ४१. "सर्वत्र भूतलशयन:--- परमहंसपरिव्राजको भवति।" परमहंसपरिव्राजकोपनिषद् /ईशाद्यष्टोत्तर शतोपनिषद् / पृष्ठ ४१९। ४२. "पाणिपात्रश्चरन्योगी नासकृमैक्षमाचरेत्" नारदपरिव्राजकोपनिषद् / ईशाद्यष्टो/ पृष्ठ २७३। ४३. "शुभाशुभकर्मनिर्मूलनपरः--- शुक्लध्यानपरायणः--- संन्यासेन देहत्यागं करोति स परम हंसपरिव्राजको भवति।" परमहंसपरिव्राजकोपनिषद् / ईशाद्यष्टोत्तरशतोपनिषद / प.४१९ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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