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________________ अ०४/प्र०१ जैनेतर साहित्य में दिगम्बरजैन मुनियों की चर्चा / २७९ में संन्यासियों के अन्य छह भेदों का वर्णन है-कुटीचक, बहूदक, हंस, परमहंस, तुरीयातीत और अवधूत।३९ इनमें प्रथम चार को कौपीनधारी बतलाया गया है और शेष दो को दिगम्बर,यथा "परमहंसः शिखायज्ञोपवीतरहितः पञ्चगृहेषु करपात्री एककौपीनधारी शाटीमेकामेकं वैणवं दण्डमेकशाटीधरो वा भस्मोद्धूलनपरः सर्वत्यागी। तुरीयातीतो गोमुखवृत्त्या फलाहारी अन्नाहारी चेद् गृहत्रये देहमात्रावशिष्टो दिगम्बरः कुणपवच्छरीरवृत्तिकः। अवधूतस्त्वनियमः पतिताभिशस्तवर्जनपूर्वकं सर्ववर्णेष्वजगरवृत्त्याहारपरः स्वरूपानुसन्धानपरः।" (सन्यासोपनिषद् / ईशाद्यष्टो.१३ / पृ.४१३)। नारदपरिव्राजकोपनिषद् (७) में कहा गया है कि कुटीचक दो शाटी धारण करे , बहूदक एक शाटी, हंस एक वस्त्रखंड, परमहंस दिगम्बर रहे या एक कौपीन पहने, तुरीयातीत और अवधूत दिगम्बर रहें "शाटीद्वयं कुटीचकस्य, बहूदकस्यैकशाटी, हंसस्य खण्डं, दिगम्बरं परमहंसस्य एककौपीनं वा, तुरीयातीतावधूतयोर्जातरूपधरत्वम्।" (ईशाद्यष्टो / पृ.२७८)। परमहंसपरिव्राजकोपनिषद् में वर्णन है कि जब अलंबुद्धि (पर्याप्त ज्ञान) हो जाय, तब कुटीचक, बहूदक, हंस अथवा परमहंस सम्बन्धित-मंत्रपूर्वक कटिसूत्र, कौपीन, दण्ड, कमंडलु, आदि सबको जल में विसर्जित कर जातरूपधर (दिगम्बर) हो जाय "यदालम्बुद्धिर्भवेत्तदा कुटीचको वा बहूदको वा हंसो वा परमहंसो वा तत्तन्मन्त्रपूर्वकं कटिसूत्रं कौपीनं दण्डं कमण्डलुं सर्वमप्सु विसृज्याथ जातरूपधरश्चरेत्।" (ईशाद्यष्टो./ पृ.४१९)। तुरीयातीतोपनिषद् में कुटीचक अवस्था से तुरीयातीत और अवधूत अवस्थाओं को प्राप्त करने का क्रम इस प्रकार बतलाया गया है ___ "सोऽयमादौ तावत्क्रमेण कुटीचको बहूदकत्वं प्राप्य, बहूदको हंसत्वमवलम्ब्य, हंसः परमहंसो भूत्वा स्वरूपानुसन्धानेन सर्वप्रपञ्चं विदित्वा दण्डकमण्डलु-कटिसूत्रकौपीनाच्छादनं स्वविध्युक्तक्रियादिकं सर्वमप्सु संन्यस्य दिगम्बरो भूत्वा विवर्णजीर्णवल्कलाजिनपरि-ग्रहमपि सन्त्यज्य तदूर्ध्वममन्त्रवदाचरन् क्षौराभ्यङ्गस्नानोर्ध्वपुण्ड्रादिकं विहाय --- शीतोष्ण-सुखदुःखमानावमानं निर्जित्य वासनात्रयपूर्वकं निन्दानिन्दागर्वमत्सरदम्भ-दर्प-द्वेष-कामक्रोधलोभमोह-हर्षामर्षासूयात्मसंरक्षणादिकं दग्ध्वा स्ववपुः कुणपाकारमिव पश्यन्न-यत्नेनानियमेन लाभालाभौ समौ कृत्वा गोवृत्त्या प्राण-संधारणं ३९. "स संन्यासः षड्विधो भवति कुटीचक-बहूदक-हंस-परमहंस-तुरीयातीतावधूताश्चेति।" संन्यासोपनिषद् । अनुच्छेद १३/ ईशाद्यष्टोत्तरशतोपनिषद् / पृ. ४१३ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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