SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 472
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २७८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ०४/ प्र०१ या न मिले दोनों स्थितियों में समभाव रखता है, सूने घर, देवालय, तृणकूट (घासफूस की झोपड़ी), वल्मीक, वृक्षतल, कुलालशाला (कुम्हार की दहलान), अग्निहोत्रगृह, नदीपुलिन, पर्वत की गुफा, कन्दरा, वृक्ष के कोटर, निर्झर या स्थण्डिल (यज्ञभूमि) में निवास करता है, किसी चीज के प्रति ममत्व नहीं रखता, अध्यात्मनिष्ठ होकर शुक्लध्यान में लीन रहता है और अशुभकर्मों के निर्मूलन का प्रयत्न करता हुआ, संन्यास से देहत्याग करता है, उस साधु का नाम परमहंस है।" यहाँ ध्यान देने योग्य है कि 'यथाजातरूपधर' 'निर्ग्रन्थ', 'निष्परिग्रह' उदरपात्र से आहारग्रहण, शून्यागार, देवगृह आदि में निवास, 'शुक्लध्यान' तथा संन्यास से देहत्याग (सल्लेखना), ये पारिभाषिक शब्द और आचार केवल दिगम्बरजैन-मुनिधर्म से सम्बन्ध रखते हैं और दिगम्बरजैन-शास्त्रों में ही उपलब्ध होते हैं। 'यथाजातरूपधर', 'निर्ग्रन्थ' और 'शक्लध्यान' तो ऐसे शब्द हैं. जो 'योग' के सबसे प्राचीन वैदिक ग्रन्थ 'पातंजलयोगदर्शन' में भी प्रयुक्त नहीं हुए हैं। इससे सिद्ध है कि श्रीमद्भागवतपुराण और जाबालोपनिषद् में वर्णित पारमहंस्यधर्म भगवान् ऋषभदेव के द्वारा उपदिष्ट दिगम्बरजैन-मुनिधर्म का ही अनुकृतरूप है। पारमहंस्यधर्म का यह स्वरूप नारदपरिव्राजकोपनिषद्, परमहंसपरिव्राजकोपनिषद्, तुरीयातीतोपनिषद् , संन्यासोपनिषद् , याज्ञवल्क्योपनिषद् और भिक्षुकोपनिषद् में भी मिलता है। परमहंसोपनिषत् में परमहंसभिक्षु को आकाशाम्बर (दिगम्बर) कहा गया है"स परमहंस आकाशाम्बरो, न नमस्कारो, न स्वाहाकारो, न निन्दा, न स्तुतिर्यादृच्छिको भवेत्स भिक्षुः।"(ईशाद्यष्टोत्तरशतोपनिषद् / पृ.१५०)। ___ संन्यासोपनिषद् (अनुच्छेद१३) में संन्यासियों के चार भेद वर्णित हैं-"वैराग्यसंन्यासी ज्ञानसंन्यासी ज्ञानवैराग्यसंन्यासी कर्मसंन्यासीति चातुर्विध्यमुपागतः।" (ईशाद्यष्टो./ पृ.४१२)। इनमें जो संन्यासी वैराग्यसंन्यास और ज्ञानसंन्यास का अभ्यास तथा अनुभव कर ज्ञानवैराग्यसंन्यास को प्राप्त करने के लिए जातरूपधर (नग्न) हो जाता है वह ज्ञानवैराग्यसंन्यासी कहलाता है ___"क्रमेण सर्वमभ्यस्य सर्वमनुभूय ज्ञानवैराग्याभ्यां स्वरूपानुसन्धानेन देहमात्रावशिष्टः संन्यस्य जातरूपधरो भवति स ज्ञानवैराग्यसंन्यासी।" (संन्यासो. / ईशाद्यष्टो. / १३ / पृ.४१२)। यद्यपि कहीं-कहीं परमहंस संन्यासी के लिए कौपीनधारण करने का भी विकल्प दिया गया है, किन्तु अन्ततः दिगम्बर होने की अनिवार्यता बतलायी गयी है। संन्यासोपनिषद Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy