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अ०४/प्र०१
जैनेतर साहित्य में दिगम्बरजैन मुनियों की चर्चा / २७७ भरत भी महायोगी थे। उन्होंने भी जड़योग, पारमहंस्य अथवा अवधूत-संन्यास ग्रहण किया था, इसलिए वे जड़भरत कहलाये।३७ उपनिषदों में उन्हें आठ परमहंससंन्यासियों में परिगणित किया गया है-“अथ परमहंसा नाम संवर्तकारुणि-श्वेतकेतुजडभरत-दत्तात्रेय-शुक-वामदेव-हारीतकप्रभृतयोऽष्टौ।"३८
१७ जाबालोपनिषद् में दिगम्बरजैन-मुनिधर्मवत् पारमहंस्यधर्म भगवान् ऋषभदेव ने जिस दिगम्बरजैनमुनि-धर्मरूप पारमहंस्यधर्म की शिक्षा दी थी उसका स्वरूप जाबालोपनिषद् में वर्णित किया गया है। वह प्रायः दिगम्बर जैन शास्त्रों में वर्णित दिगम्बरजैन-मुनिधर्म से मिलता है। पारिभाषिक शब्दावली भी वही की वही है। यथा
"तत्र परमहंसा नाम संवर्तकारुणि-श्वेतकेतु-दुर्वास-ऋभु-निदाघ-जडभरतदत्तात्रेय-रैवतक-प्रभृतयोऽव्यक्तलिङ्गा अव्यक्ताचारा अनुन्मत्ता उन्मत्तवदाचरन्तस्त्रिदण्डं कमण्डलं. शिक्यं. पात्रं, जलपवित्रं, शिखां, यज्ञोपवीतं चेत्येतत् सर्वं भूः स्वाहेत्यप्सु परित्यज्या-त्मानमन्विच्छेत्। यथाजातरूपधरो निर्ग्रन्थो निष्परिग्रहस्तत्तद्ब्रह्ममार्गे सम्यक्सम्पन्नः शुद्ध-मानसः प्राणसन्धारणार्थं यथोक्तकाले विमुक्तो भैक्षमाचरन्नुदरपात्रेण लाभालाभयोः समोभूत्वा शून्यागार-देवगृह-तृणकूट-वल्मीक-वृक्षमूलकुलालशालाग्निहोत्रगृह-नदी-पुलिन-गिरिकुहर-कन्दर-कोटर-निर्झर-स्थण्डिलेषु तेष्वनिकेतवास्यप्रयत्नो निर्ममः शुक्लध्यानपरायणोऽध्यात्मनिष्ठोऽशुभकर्मनिर्मूलनपरः संन्यासेन देहत्यागं करोति स परमहंसो नाम परमहंसो नामेति।" (जाबालो./ईशाद्यष्टो./ पृ.१३१)।
अनुवाद-"संवर्तक, आरुणि, श्वेतकेतु, दुर्वासा, ऋभु, निदाघ, जड़भरत, दत्तात्रेय, रैवतक आदि परमहंस संन्यासी हैं। इनका लिंग (वेश) और आचार स्पष्ट नहीं होता। ये विक्षिप्त नहीं होते, लेकिन विक्षिप्तों जैसा आचरण करते हैं, त्रिदण्ड (परस्पर बँधे तीन दण्ड), कमण्डलु , झोली (शिक्य), पात्र, पानी छानने का वस्त्र (जलपवित्र), शिखा और यज्ञोपवीत (जनेऊ), इन सबको 'भूः स्वाहा' यह मन्त्र पढ़ते हुए जल में विसर्जित कर आत्मा का अन्वेषण करते हैं। जो यथाजातरूपधारी (जन्म के समय जैसा रूप होता है. वैसे रूप अर्थात् नग्नरूप का धारी), निम्रन्थ (नग्न), निष्परिग्रह, ब्रह्ममार्ग में सम्यक्सम्पन्न और शुद्धमानस होता है, प्राणधारण करने के लिए निर्धारित काल में भिक्षाचरण करता हुआ उदरपात्र में ही भोजन ग्रहण करता है, भिक्षा मिले ३७. भागवतपुराण / स्कन्ध ५ / अध्याय ७-१४। ३८. भिक्षुकोपनिषद् । ईशाद्यष्टोत्तरशतोपनिषद् / पृ. ३६८ ।
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