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२७६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
अ०४/प्र०१ रूप का लक्षण है। भगवान् ऋषभदेव के इस रूप का वर्णन भागवतपुराण में इस प्रकार किया गया है
"परागवलम्बमान-कुटिल-जटिल-कपिश-केश-भूरिभारोऽवधूतमलिन-निजशरीरेण ग्रहगृहीत इवादृश्यत।" (भा.पु./५/५/३१ / पृ. २११)।
यद्यपि भगवान् ऋषभदेव अखिल लोकपालकों के आभूषण थे, तथापि उनके विलक्षण जड़वत् अवधूतीय वेश, भाषा और आचरण से उनका भगवत्प्रभाव परिलक्षित नहीं होता था
"अथैवमखिल-लोकपाल-ललामोऽपि विलक्षणैर्जडवदवधूतवेषभाषाचरितैरविलक्षितभगवत्प्रभावो योगिनां साम्परायविधिमनुशिक्षयन् स्वकलेवरं जिहासुरात्मन्यात्मानमसंव्यवहितमनर्थान्तरभावेनान्वीक्षमाण उपरतानुवृत्तिरुपरराम।" (भा.पु./५/६/६/पृ.२१२)।
वे बहुत दिनों तक दक्षिण के कर्णाटक आदि देशों में बिखरे हुए बालों-सहित नग्न विचरण करते रहे-"मुक्तमूर्धजोऽसंवीत एव विचचार।" (भा.पु.५/६/७/पृ.२१२) इसे भागवतपुराणकार ने जडयोगचर्या कहा है
नाभेरसावृषभ आस सुदेविसूनुर्यो वै चचार समदृग् जडयोगचर्याम्। यत्पारमहंस्यमृषयः पदमामनन्ति
स्वस्थः प्रशान्तकरणः परिमुक्तसङ्गः॥ २/७/१०॥ अर्थात् भगवान् ऋषभदेव की उपर्युक्त वीतराग, शरीरादि से उदासीन, दिगम्बरचर्या का नाम ही पारमहंस्य, अवधूतसंन्यास एवं जड़योग है। इसके द्वारा उन्हें अनेक ऋद्धियाँ प्राप्त हुईं, जैसे आकाशगमन, मन के समान तीव्रगति, अन्तर्धान, परकायाप्रवेश, दूरग्रहण (इन्द्रियों की सीमा से बाहर के विषय को भी ग्रहण करना) आदि, किन्तु भगवान् ने इनमें रुचि नहीं ली। इसके बाद उन्हें कैवल्य एवं परमानन्द की अवस्था प्राप्त हो गई
"इति नानायोगचर्याचरणो भगवान् कैवल्यपतिर्ऋषभोऽविरतपरम-महानन्दानुभव आत्मनि सर्वेषां भूतानामात्मभूते भगवति वासुदेव आत्मनोऽव्यवधानानन्तरोदरभावेन सिद्धसमस्तार्थपरिपूर्णो योगैश्वर्याणि वैहायसमनोजवान्तर्धान-परकायप्रवेश-दूरग्रहणादीनि यदृच्छयोपगतानि नाञ्जसा नृप हृदयेनाभ्यनन्दत्।" (भा.पु./५/५/३५/पृ.२११-२१२) ।
- भगवान् ऋषभदेव के सौ पुत्र थे, जिनमें ज्येष्ठ पुत्र का नाम भरत था। उन्हीं के नाम से इस देश का नाम भारतवर्ष पड़ा-"येषां खलु महायोगी भरतो ज्येष्ठः श्रेष्ठगुण आसीद्येनेदं वर्ष भारतमिति व्यपदिशन्ति।" (भा.पु./५/४/९/ पृ.२०८)।
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