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अ० ४ / प्र० १
जैनेतर साहित्य में दिगम्बरजैन मुनियों की चर्चा / २७५
न कि दक्षिणापथ में, इससे यह सिद्ध होता है कि दिगम्बरजैन - परम्परा का जन्म उत्तरभारत में ही हुआ था, दक्षिणभारत में नहीं। इस प्रकार 'श्रीमद्भागवतमहापुराण' दिगम्बरजैनपरम्परा की ऋषभयुगीन प्राचीनता को प्रमाणित करने वाला महत्त्वपूर्ण वैदिक ग्रन्थ है ।
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ऋषभदेव का वैदिकधारा पर प्रभाव
विष्णुपुराण और भागवतपुराण से एक और महत्त्वपूर्ण तथ्य सामने आता है। वह यह कि विष्णुपुराण के अनुसार मायामोह ने और भागवतपुराण के अनुसार ऋषभदेव ने एकमात्र नग्नमुनि - मार्ग का ही प्रवर्तन किया था, नग्न और अनग्न ( अचेल और सचेल) दोनों प्रकार के मुनिमार्गों का नहीं । वैदिक ऋषियों ने भी भगवान् ऋषभदेव से दिगम्बर - मुनिमार्ग की ही शिक्षा ग्रहण की थी। यह बात भागवतपुराण एवं उपनिषदों से प्रमाणित होती है।
भागवतपुराण के पूर्वोद्धृत वाक्यों में कहा गया है कि विष्णु के अवतार भगवान् ऋषभदेव ने पारमहंस्य धर्म की शिक्षा दी थी, जो भक्तिज्ञानवैराग्यस्वरूप है। पूर्वोद्धृत वाक्यों में यह भी कहा गया है कि भगवान् विष्णु ने वातरशन (दिगम्बर) ऋषियों के धर्म का उपदेश देने के लिए ऋषभदेव के रूप में अवतार लिया था। इससे सिद्ध है कि पारमहंस्य धर्म में दिगम्बरत्व की प्रधानता है । परमहंससाधु की अन्तिम अवस्था अवधूत-अवस्था है, जिसमें वह जड़ के समान, अन्धे - गूँगे और बहिरे के समान तथा पिशाच के समान उन्मादक सा हो जाता है। भागवतपुराण के अनुसार भगवान् ऋषभदेव इस अवस्था में पहुँच गये थे
“जडान्ध-मूकबधिरपिशाचोन्मादकवदवधूतवेषोऽभिभाष्यमाणोऽपि जनानां गृहीतमौनव्रतस्तूष्णीं बभूव ।' (भा.पु. /५/५/२९/पृ. २११) ।
जड़ के समान हो जाने का अर्थ है सांसारिक पदार्थों के प्रति प्रतिक्रियारहित हो जाना, वीतराग हो जाना, उनसे सुख - दुःख का अनुभव न करना । मूक के समान हो जाने का मतलब है शुभाशुभवचनप्रवृत्ति न करना, अन्धे होने का अभिप्राय है चक्षुइन्द्रिय के विषय को देखकर भी न देखना अर्थात् उसमें राग-द्वेष न करना, बधिर होने से तात्पर्य है श्रोत्रेन्द्रिय के विषय को सुनकर भी न सुनना अर्थात् उसमें आसक्त न होना । शरीर से विरक्त हो जाने के कारण परमहंससाधु न तो वस्त्रधारण करता है, न स्नानादि द्वारा शरीर का संस्कार करता है, इसलिए बाल बिखरे रहते हैं, शरीर पर मैल चढ़ जाता है, जिससे वह नंगधड़ंग, मैले-कुचैले, बीभत्स रूप के कारण पागल (उन्मत या पिशाचग्रस्त मनुष्य) के समान लगता है। यह भी उसके अवधूत
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