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________________ २७४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ०४ / प्र० १ और जड़भरत का चरित्र अत्यन्त प्रेरणास्पद है। भागवत के दसवें और ग्यारहवें स्कन्ध श्रीकृष्ण की लीलाओं के वर्णन के लिए प्रसिद्ध तथा अत्यन्त लोकप्रिय रहे हैं । ३६ यह पूर्व ( शीर्षक १) में कहा जा चुका है कि भागवतपुराण के वर्णनानुसार भगवान् विष्णु ने राजा नाभि का प्रिय करने के लिए महारानी मेरुदेवी के गर्भ में ऋषभदेव के रूप में अवतार लिया था, जिसका उद्देश्य था वातरशन - श्रमण - ऋषियों के धर्म (दिगम्बर जैनधर्म) को प्रकट करना "बर्हिषि तस्मिन्नेव विष्णुदत्त ! भगवान् परमर्षिभिः प्रसादितो नाभेः प्रियचिकीर्षया तदवरोधायने मेरुदेव्यां धर्मान् दर्शयितुकामो वातरशनानां श्रमणानामृषीणामूर्ध्वमन्थिनां शुक्लया तन्वावततार ।" (भा.पु./५/३/२०/पृ.२०७-२०८) । भागवतपुराण का यह भी कथन है कि ऋषभदेव ने महामुनियों को भक्तिज्ञानवैराग्यरूप पारमहंस्य धर्म की शिक्षा देने के लिए अपने ज्येष्ठ पुत्र भरत का राज्याभिषेक कर स्वयं घर में ही समस्त परिग्रह का त्याग कर दिया और उन्मत्त के समान नग्न हो गये, केशों का संस्कार करना छोड़ दिया, जिससे वे अस्तव्यस्त हो गये और इसी हालत में ब्रह्मावर्त से चल पड़े "महामुनीनां भक्तिज्ञानवैराग्यलक्षणं पारमहंस्यधर्ममुपशिक्षमाणः स्वतनयशतज्येष्ठं परमभागवतं भगवज्जनपरायणं भरतं धरणिपालनायाभिषिच्य स्वयं भवन एवोर्वरित - शरीरमात्रपरिग्रह उन्मत्त इव गगनपरिधानः प्रकीर्णकेश आत्मन्यारोपिताहवनीयो ब्रह्मावर्तात् प्रवव्राज ।" (भा.पु./५/३/२८ / पृ. २११) । इस तरह भागवतपुराण में भी ऋषभदेव को दिगम्बरजैन मुनियों के ही धर्म का प्रवर्तक बतलाया है, श्वेताम्बरजैन मुनियों के धर्म का नहीं । अर्थात् उन्होंने एकान्ततः वातरशन (नग्न) मुनियों के ही धर्म का प्रवर्तन किया था, चेलरशन (सवस्त्र) मुनियों के धर्म का अपवाद रूप से भी प्रवर्तन नहीं किया और ६०० ई० के भागवतपुराणकार ने ऋषभदेव को ही दिगम्बरजैनधर्म का प्रणेता कहा है, आचार्य कुन्दकुन्द को नहीं। इससे सिद्ध है कि दिगम्बरजैन- परम्परा भागवत पुराण के रचनाकाल से भी बहुत पूर्ववर्ती है, उतनी ही पूर्ववर्ती जितनी भागवतपुराण के रचयिता ने बतलायी है और जैनपुराण भी बतलाते हैं अर्थात् ऋषभदेवकालीन । तथा भागवत के अनुसार ऋषभदेव 'स्वायम्भुव' नाम के प्रथम मनु की पाँचवी पीढ़ी में (स्वायम्भुवमनु, प्रियव्रत, आग्नीध्र, नाभि और ऋषभ) हुए थे । अतः मन्वन्तर - कालगणना के अनुसार दिगम्बरजैनपरम्परा कम से कम ढाई करोड़ वर्ष प्राचीन सिद्ध होती है, यह पूर्व में दर्शाया जा चुका है। (देखिये, शीर्षक १०.१) । पुनः भगवान् ऋषभदेव का जन्म ब्रह्मावर्त में हुआ था, ३६. वही / पृ. ८० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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