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________________ अ०४ / प्र० १ जैनेतर साहित्य में दिगम्बरजैन मुनियों की चर्चा / २७३ इसी श्लोक की टीका में इन सप्तविध साधुओं का वर्णन निम्नलिखित नामों से किया गया है वानप्रस्थोऽथ कापाली बौद्धः स्यादेकदण्डिनः । त्रिदण्डी योगिनो नग्नः प्रव्रज्यार्कादितः क्रमात् ॥ ३५ यहाँ तापस को वानप्रस्थ, वृद्धश्रावक को कापालिक, रक्तपट को बौद्ध, को एकदण्डी, भिक्षु को त्रिदण्डी, चरक को योगी और निर्ग्रन्थ को नग्न शब्द से विवेचित किया गया है। इससे स्पष्ट है कि वराहमिहिर को 'निर्ग्रन्थ' शब्द से भी 'नग्न (दिगम्बर) जैन साधु' अर्थ ही अभिप्रेत था । यह आश्चर्य की बात है कि श्वेताम्बरसाहित्य में वराहमिहिर को श्वेताम्बराचार्य भद्रबाहु (निर्युक्तिकार) का कनिष्ठ भ्राता माना गया है, किन्तु वराहमिहिर ने केवल नग्नों को ही 'जिन' का उपासक कहा है, श्वेतपटों को नहीं, तथा उन्होंने 'निर्ग्रन्थ' 'नग्न' और 'रक्तपट' शब्दों का प्रयोग तो किया है, किन्तु श्वेतपट' या 'सिताम्बर' शब्द कहीं भी प्रयुक्त नहीं किया। इसके अतिरिक्त समस्त वैदिक, बौद्ध एवं संस्कृत साहित्य में जैनसाधु के रूप में निर्ग्रन्थों, क्षपणकों, दिग्वाससों और वातरशनों का जितना अधिक उल्लेख हुआ है, उतना श्वेतपटों, सिताम्बरों या श्वेताम्बरों का नहीं हुआ । इससे हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि प्राचीनकाल में दक्षिणभारत की तरह उत्तरभारत में भी दिगम्बर साधु ही जैनसाधु के रूप में सर्वाधिक प्रसिद्ध थे । १५ भागवतपुराण (६०० ई०) में वातरशन श्रमण, गगनपरिधान पुराण - विशेषज्ञ श्री आर० सी० हाजरा ने भागवतपुराण का रचनाकाल ६०० ई० के लगभग आकलित किया है । ३५ यह वैदिक परम्परा का सर्वाधिक प्रसिद्ध पुराण है । " वैष्णव धर्म के अनुयायी इसे पाँचवाँ वेद ही मानते हैं । कविता और दर्शन का दुर्लभ मणिकांचनयोग इस पुराण में हुआ है । यह चिन्तन, पाण्डित्य और काव्य की कसौटी माना गया है। कहा भी है- " विद्यावतां भागवते परीक्षा" अर्थात् विद्वानों की परीक्षा भागवत में हीं है। विष्णु के अवतारों का वर्णन करते हुए भागवतकार ने सांख्य के प्रवर्तक कपिलमुनि तथा गौतम बुद्ध को भी उनके अवतारों में निरूपित करके धर्म के सम्बन्ध में समन्वय की दृष्टि का परिचय दिया है। पंचम स्कन्ध में ऋषभदेव Jain Education International ३५. डॉ. राधावल्लभ त्रिपाठी / संस्कृतसाहित्य का अभिनव इतिहास / पृ.७७ । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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